Average rating based on 2393 reviews.
आंखों की कलम से सैलाब सैलाब में बह गया सब कुछ रह गया भाव विहीन मन - बरसों बरसों से बुने इंद्रधनुष पर कोई स्याही उडेल गया अनजाने ही कहीं कोई क्षण बिन बरसे रह गया - किसी की याद के बादल से बरसी बूंदों सी झिलमिल बातें हल्का सा गीलापन छोड़ गइंर् अनछुए स्पंदन पर। और फिर से कुछ नए बिम्ब संजोने लगे आभादीप्त भावों को। फिर से बयार महकाने लगी अधपकी सरसों। मानों किसी ने कह दी कोई नई कहानी लगता है अब के सावन कुछ जल्दी बरसेगा सैलाब को तो उमड़ना ही होगा जब कभी उसे मिलेगी भावपूरित नवीनता .............।
कामकाजी स्त्री
नींद से उठ कर स्त्री जुटती है घर में बच्चों को करती है तैयार स्कूल के लिए पति को देती है नाश्ता रसोई में बनाते हुए खाना उसे याद रहता है सब्जी में डाला हुआ नमक नहाते हुए ध्यान रहता है कि न टूटें न मौले उसके सुहाग की चूड़ियां फिर बस में बैठ सताने लगती है जल्दी काम पर पहुंचने की चिंता खिड़की के बाहर देखते देखते वह याद कर लेती है अपनी अलमारी में टंगी साड़ियां पर दफ्तर पहुंच कर जब शुरू होती है काम की बौछार तब उसे यह भी याद नहीं रहता कि प्यार के क्षणों में कैसे कहेगी वह पति से अपने मान की बात रोज इसी तरह थक कर लेट जाती है वह नींद में हर बार।
दस्तावेज
आंखों की कलम से तुम क्यों गोद रहे हो मेरे बदन को जानती हूँ कि गहरे अंतराल के बाद भी तुम्हारे नयनों की लालिमा स्याह नहीं हो पाई है। फिर उनकी सशक्तता मेरे रोम रोम में लिख देना चाहती है तुम्हारी उदासी जिसकी चेतना का स्पर्श मुझे दस्तावेज बना देना चाहता है। यह बखूवबी जानते हुए कि मेरी उम्र बहुत लम्बी है और तुम्हारे इतिहास का सुरक्षित होना स्वाभाविक है लेकिन यह क्यों भूलते हो कि गोदे जाने पर पृष्ठों की आयु कम हो जाती है वह झरझरा जाते हैं फिर रद्द कर दिए जाते हैं तुम कहोगे - पुरानी प्रतियों के बाजारू भाव अधिक होते हैं अब किसी दिन तो तुम्हें भी मेरी अमानत का बोझ ढोकर दस्तावेज होना ही है।
जाड़े के शुरू होने के दिन
यह जाड़े शुरू होने के दिन हैं मेरी बूढ़ी दादी ढूंढ़ रही हैं सुबह से धूप तेल लगाना चाहती है अपने उन झुर्रीदार हाथों पर जिन से वह मेरी मालिश किया करती थी। हां, यह जाड़े के शुरू होने के दिन हैं मेरे पिता बाहर बागीचे में लेकर बैठ गए हैं अखबार, एक शीश और एक कैंची। सेकेंगे धूप, पढ़ेंगे अखबार और मेरे विवाह की चिंता में पक गए बालों को शीशे में देख कर तोड़ेंगे। हां शायद धूप उतरेगी आंगन में पहुंचेगी रसोई की खिड़की से मेरी मां के पास और व्यस्त होते हुए भी वह खिली मुस्कान फेंक स्वागत करेंगी उसका क्योंकि यह जाड़े के शुरू होने के दिन हैं। पारुल शर्मा : एक वरिष्ठ पत्रकार, कवयित्री, लेखक और संपादक है।पत्रकारिता में करीब 40 साल से सक्रिय हैं ।कला,साहित्य, संस्कृति ,बाल लेखन,महिलाओं और समाज से जुड़े ज्वलंत विषयों पर बेबाकी से लिखती रहती हैं।