टीबी का उपचार को मिली नई सुविधा
सोहिनी दास
रोगों आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) यानी कृत्रिम मेधा से क्षय रोग (टीबी) और कैंसर जैसी बीमारियों की विभिन्न चरणों में पहचान करने में मदद मिल रही है। रोगों के निदान में बढ़ती उपयोगिता को देखते हुए भारतीय स्वास्थ्य क्षेत्र में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का महत्त्व बढ़ता जा रहा है। अब तक ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिनमें आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आधारित तकनीक एवं उपकरणों का रोगों के निदान में इस्तेमाल हो चुका है।
आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की मदद से रोगों के निदान में अपनी उपस्थिति दर्ज करने वाली कंपनियों की सूची में माईलैब डिस्कवरी सॉल्यूशंस भी शामिल हो गई है। कंपनी ने आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस सॉफ्टवेयर प्रदाता कंपनी क्यूर डॉट एआई के साथ हाथ मिलाया है। इस साझेदारी की मदद से कंपनी क्षय रोग की समय रहते पहचान के लिए आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आधारित एक्स-रे उपकरण का इस्तेमाल करेगी। माईलैब जल्द ही हाथ से ही इस्तेमाल होने एक्स-रे उपकरण ‘माईबीम’ उतारने जा रही है। इस उपकरण की मदद से क्षय रोग का निदान तेजी से और सटीक ढंग से हो पाएगा।
इस बारे में माईलैब के प्रबंध निदेशक एवं सह-संस्थापक हंसमुख रावल ने कहा, ‘हाथ से संचालित होने वाली इस एक्स-रे मशीन से क्षय रोग की पहचान करने की हमारी क्षमता बढ़ जाएगी। क्यूर डॉट एआई को रेडियोलॉजी खंड में विशेषज्ञता हासिल है, इसलिए उनके सहयोग से यह कार्य और तेजी से हो पाएगा। दो स्वदेशी कंपनियां आपसी सहयोग से देश में स्वास्थ्य क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान देंगी।’
यह पहला मौका नहीं है जब आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आधारित उपकरणों का इस्तेमाल क्षय रोग के निदान में हो रहा है। राजस्थान के बारां जिले में तकनीकी क्षेत्र की कंपनी क्यूर डॉट एआई जिला अस्पताल में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस तकनीक आधारित अपनी एक्स-रे मशीन लगाएगी। इस मशीन से तत्काल ही रोगों का निदान हो सकेगा। उपलब्ध आंकड़ों एवं खबरों के अनुसार क्षय रोग के दर्ज मामलों में 33 प्रतिशत का इजाफा हुआ हुआ था जबकि इस बीमारी के संभावित मरीजों के बीच में ही इलाज बंद करने के मामले 72 प्रतिशत से कम होकर 53 प्रतिशत रह गए हैं।
निदान (डायग्नॉस्टिक) क्षेत्र की कंपनियां अपने रोजमर्रा के परिचालन में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का इस्तेमाल करने के प्रति उत्साहित दिख रही हैं। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आधारित उपकरणों से रोगों का निदान तेजी से और सटीक होता है। देश में प्रतिभाशाली रेडियोलॉजिस्ट और पैथोलॉजिस्ट की कमी के बीच रोगों के निदान में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आधारित तकनीक का महत्त्व और बढ़ जाता है।
मुंबई में मेट्रोपोलिस हेल्थकेयर में 60 प्रतिशत नमूनों की जांच चिकित्सक ही करते हैं जबकि शेष 40 प्रतिशत नमूनों की जांच आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आधारित तकनीक के जरिये हो रही है। यह इस बात की ओर इशारा कर रहा है कि किस तरह आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस बीमारियों के निदान एवं उपचार में महत्त्वपूर्ण योगदान दे रही है।
मेट्रोपोलिस हेल्थकेयर में अध्यक्ष एवं प्रमुख (विज्ञान एवं नवाचार) नीलेश शाह ने पिछले साल बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया था कि सामान्य रक्त जांच (सीबीसी) से लेकर ऑटोइम्यून डिसऑर्डर की जांच आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से संचालित उपकरणों की मदद से तेजी से और बिना किसी चूक के हो रही है। शाह ने कहा, ‘बीमारियों के निदान में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का इस्तेमाल भविष्य में बढ़ेगा। इससे चिकित्सकों पर बोझ कम हो जाएगा और वे पेचीदा मामले निपटाने में अधिक समय दे सकेंगे। खर्च के लिहाज से भी आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस काफी फायदेमंद है।’
कुछ अनुमानों के अनुसार करीब दो तिहाई लोगों की रेडियोलॉजिस्ट तक पहुंच नहीं है। तकनीक, खासकर आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की मदद से यह प्रयत्न किया जा रहा है कि उन मामलों में मानव विशेषज्ञता का पूरा इस्तेमाल हो जहां अधिक ध्यान दिए जाने की जरूरत है। मुंबई स्थित एक रेडियोलॉजिस्ट ने कहा ‘आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आधारित मशीनें चिकित्सकों को उनके काम में मदद करती हैं। यह बार-बार किए जाने वाले काम बिना रुके और सटीक ढंग से कर सकती हैं। हालांकि इसका यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आधारित मशीन एवं उपकरण चिकित्सकों की जगह ले लेंगे। मगर देश में रेडियोलॉजिस्ट और पैथोलॉजिस्ट की कमी देखते हुए आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस एक समानांतर भूमिका निभा सकती है।’
डिजिटल स्वास्थ्य सेवा
फेफड़े के कैंसर में शुरुआती जांच में 35 प्रतिशत गांठ पकड़ में नहीं आती हैं। इससे इस रोग के निदान में देरी हो जाती है और मरीजों की जीवन प्रत्याशा कम हो जाती है (फेफड़े के कैंसर के 75 प्रतिशत मरीजों की 5 वर्षों के भीतर ही मौत हो जाती है)। दवा कंपनियां भी अब आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का इस्तेमाल कर रही हैं। दवा कंपनियां ग्राहकों के लिए अपनी सेवाओं का दायरा व्यापक बनाने के लिए डिजिटल स्वास्थ्य सेवाओं में उतर रही हैं। उदाहरण के लिए ल्यूपिन हृदय रोगियों के लिए अपने डिजिटल हेल्थ ऐप्लिकेशन ‘लाइफ’ में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का इस्तेमाल कर रही है।
ल्यूपिन के अध्यक्ष (भारतीय कारोबार) राजीव सिब्बल ने ‘लाइफ’ की शुरुआत के मौके पर कहा, ‘हृदय रोग के पुराने मरीजों के मामले में जोखिम अधिक रहता है और उनके इलाज में विशेष सावधानी बरतने की जरूरत होती है। अपने डिजिटल प्लेटफॉर्म ‘लाइफ’ की मदद से हम मानव क्षमता और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की मिली-जुली ताकत का इस्तेमाल मरीजों के बेहतर इलाज में कर रहे हैं।’
बीमारियों की रोकथाम में भी आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस अहम भूमिका निभा रही है। रोश का एक्यूचेक इनसाइट इंसुलिन की मदद से पंप के जरिये इंसुलिन स्वचालित तरीके से दिया जाता है। यह पंप शर्करा के स्तर पर नजर रखने वाले तंत्र से जुड़ा होता है। इस तंत्र से वास्तविक समय में आंकड़ों का विश्लेषण होता है तय हो जाता है कि इंसुलिन दिया जाए या बंद कर दिया जाए। स्वास्थ्य-तकनीक क्षेत्र की कंपनियां आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस तकनीक लाने के लिए दिन-रात मेहनत कर रही हैं।
बेंगलूरु में फिलिप्स इनोवेशन कैंपस नवाचार के शुरुआती स्वरूप पर काम शुरू करने लिए ग्राहकों के व्यवहार का अध्ययन कर रही है। सीमेंस हेल्थकेयर और फिलिप्स सीटी, एमआरआई, अल्ट्रासाउंड आदि जांच तकनीकों में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का इस्तेमाल कर रही हैं। स्वास्थ्य तकनीक क्षेत्र की अधिकांश कंपनियां, उन्हीं के शब्दों में, ‘क्लिनिकल डिसिजन टूल्स’ विकसित कर रही हैं। इन्हें खरीदने वाले उद्योग इनका इस्तेमाल दूरस्थ तकनीक से स्वास्थ्य सेवाएं देने में कर रहे हैं।
कृष्णा डायग्नॉस्टिक्स पुणे में एक टेली-पैथोलॉजी लैब स्थापित कर रही है और अपनी पूरी पैथोलॉजी लैब का डिजिटलीकरण करने के लिए एआई100 का इस्तेमाल कर रही है। कंपनी नें बेंगलूरु की सिगट्यूपल के साथ हाथ मिलाया है। सिगट्यूपल जांचघरों में हाथ से संचालित कार्यों को स्वचालित करने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आधारित तकनीक का इस्तेमाल कर रही है। इसके लिए कंपनी रोबोटिक्स और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की ताकत दोनों का इस्तेमाल करती है। वैश्विक स्तर पर भी आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से संचालित डिजिटल माइक्रोस्कोपी तकनीक पैथोलॉजी क्षेत्र में अहम बदलाव लाने वाला सिद्ध हो रही है। डिजिटल माइक्रोस्कोपी एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें शरीर से प्राप्त नमूने की जांच सूक्ष्मदर्शी लेंस के जरिये की जाती है। इससे नमूने जांच के लिए कहीं ले जाने की जरूरत नहीं पड़ती है और पैथोलॉजिस्ट कहीं से भी इनका अध्ययन कर सकते हैं।
आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के बढ़ते इस्तेमाल को देखते हुए सार्वजनिक क्षेत्र भी इससे जुड़ी संभावनाओं का लाभ उठाने पर विचार कर रहा है। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस संचालित एक प्रणाली से एक साल के दौरान महाराष्ट्र के 12 जिलों से हृदयघात के करीब 2,200 मामलों में मरीजों को स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंचाया गया है। यह प्रणाली ‘हब ऐंड स्पोक’ मॉडल पर काम कर रही है जिसमें ग्रामीण या जिला अस्पताल स्पोक के तौर पर काम करते हैं। स्वास्थ्य क्षेत्र में ‘हब ऐंड स्पोक मॉडल’ एक संगठनात्मक प्रारूप है जिसमें सेवा आपूर्ति तंत्र एक प्राथमिक (केंद्रीय) और सहायक केंद्रों में विभाजित किया जाता है।
किसी भी नई तकनीक की तरह आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के साथ भी कुछ जोखिम जुड़े हैं। वैश्विक स्वास्थ्य एजेंसियों ने हाल में आगाह किया कि कुछ इंसुलिन पंप साइबर हमले का शिकार हो सकते हैं और हैकर उपकरण तक पहुंच स्थापित कर इंसुलिन आपूर्ति बाधित कर सकते हैं। साभार: बिजनेस स्टैंडर्ड