
पब्लिशर का दावा और गूगल पर दबाव
शंभु सुमन
टेक कंपनियां गूगल की अल्फाबेट हो, या फिर फेसबुक! वे न्यूज पेपर और पोर्टल के कंटेंट का इस्तेमाल कर मिनटों में करोड़ों रुपये कमा लेती हैं, जबकि बदले में उनके पब्लिशर को एक फूटी कौड़ी नहीं मिलता. अब ऐसा नहीं चलेगा, क्योंकि भारत सरकार ने उन पर सख्ती बरतने के लिए नया कानून बनाने की तैयारी कर ली है.
एक तरफ भारतीय यूट्यूबर को अमेरिकी व्यूअर्स और सब्सक्राइबर्स की बदौलत होने वाली कमाई में से यूट्यूब को 24 से 30 फीसदी अतिरिक्त टैक्स चुकाना पड़ रहा है। साथ ही गूगल को न्यूज समेत डिजिटल प्लेटफार्मों के कंटेंट के बल पर सर्च की मिली जबरदस्त बढ़त से प्रत्येक तिमाही औसतन 62 बिलियन डॉलर तक की कमाई हो जाती है। दूसरी तरफ वैसे कंटेंट के असली मालिकों को बदले में एक पैसा नहीं मिलता है।
यानी कि अल्फाबेट कंपनी को गूगल सर्च और यूट्यूब से होने वाली सबसे अधिक कमाई में भारत के गांव से लेकर शहर-महानगर तक फैले कंटेंट प्रदाताओं का काफी योगदान है। लाखों लोग गूगल सर्च पर हर मिनट कुछ न कुछ करंट न्यूज से लेकर वेब पोर्टल के दूसरे फीचर तक सर्च कर रहे होते हैं। एक अनुमान के मुताबिक गूगल उस सर्च से एक मिनट में करीब दो करोड़ रुपये की कमाई कर लेता है।
यह कहें कि गूगल कंटेंट की बदौलत ही अपने नए विजिटर्स की संख्या में बम्पर बढ़ोत्तरी कर मोटा मुनाफा कमाती है, जबकि कंटेंट तैयार करने वालों को इसकी भनक तक नहीं लग पाती। ये टेक कंपनियां विज्ञापनदाताओं के विज्ञापनों को न्यूज और इंटरनेट प्लेटफार्म से हासिल यूनिक कंटेंट के साथ डिस्प्ले करवाती हैं। उसे बिड (निलामी) और एसईओ कीवर्ड के जरिए ऑटो मोनेटाइज सिस्टम से लोगों तक पहुंचाती है। बदले में उनकी शर्तो को पालन करने वाले कुछ वेब पोर्टल को एड से पैसा मिल पाता है, जबकि सभी को उनके कंटेंट के बदले में कुछ भी नहीं मिलता। ऐसे कंटेंट प्रदाताओं में न्यूज पेपर, विभिन्न विषयों के मैग्जीन के प्रकाशक और इंटरनेट प्लेटफार्म शामिल हैं।
बीते एक दशक से गूगल का सर्च मार्केट में एकाधिकार बन चुका है। उसने सर्च इंजन याहू, एमएसएन और बिंग को काफी पीछे छोड़ दिया है। उसकी कमाई एडवर्ड्स और एडसेंस सर्विस के जरिए होती है। वह उनसे विज्ञापनों का मुनाफा कमाता है। हालांकि इसके अलावा कई दूसरी सर्विस से भी गूगल की कमाई होती है, लेकिन 70 फीसदी से अधिक की आमदनी एडवर्ड्स और उसके बाद एडसेंस से ही है। इसमें टेक्स्ट, आडियो या वीडियो के तौर पर हर किस्म के कंटेंट वाले यूट्यूब का सहयोग है। इनमें बीते कुछ सालों से न्यूज कंटेंट का जबरदस्त वर्चस्व बढ़ा है।
लाखों की संख्या में यूट्यूब पर स्थानीय पत्रकारों ने भी निजी न्यूज खोल लिया है. इनमें कुछ के सब्सक्राइबर्स ही लाखों में हैं, जो विज्ञापनों से होने वाली आमदनी के भरोसे हैं। उनके कंटेंट का खर्च मुश्किल से ही निकल पाता है। जबकि इसपर डिस्प्ले होने वाले एड से सेकेंड के हिसाब से क्लिक-दर-क्लिक यूट्यबर के साथ-साथ गूगल भी कमाई कर लेता है। साथ ही मीडिया हाउस को न्यूज पब्लिश करने के लिए भारी मात्रा में पैसा खर्च करना पड़ता है। इसमें स्टूडियो, कार्यालय, उपकरण, पत्रकार, दूसरे कर्मचारियों के वेतन और ट्रांस्पोर्टेशन का खर्च शामिल है। उनकी कमाई का पहला स्रोत विज्ञापन है, वह भी तब आ सकता है जब टेक कंपनियों पर अच्छा ट्रैफिक मिले। यह उनकी मर्जी पर निर्भर है। यानी कि गूगल अपने एल्गोरिदम के माध्यम से यह निर्धारित करता है कि कौन सा न्यूज वेबसाइट सबसे पहले उसके प्लेटफार्मों पर खोजी जा सकती है।
इनसे जुड़ी विशेष बात कंटेंट की है कि अगर कंटेंट है तभी विज्ञापन के व्यूअर्स, विजिटर्स और सब्सक्राइबर्स हैं। महंगे विज्ञापन तभी मिल सकते हैं, जब कंटेंट में दमखम होगा। उसके लिए कंटेंट के रूप में न्यूज की अहमियत को गूगल बाखूबी समझता है। इसे देखते हुए ही उसने अपने इस सेक्शन को काफी सुधिजनक बनाकर कई खंड बना लिए हैं। जब आप गूगल न्यूज पर जाते हैं, तब बीते दशक की तरह सीधा-सपाट न्यूज नहीं दिखता है, बल्कि विषयों की विविधता नजर आता है। उसमें जरूरत के मुताबिक कुछ नए फीचर भी शामिल कर लिए गए हैं। जैसे फॉर यू, फॉलोइंग, न्यूज शोकेस के अतिरिक्त नए विषय के तौर पर टेक्नोलाजी, साइंस और हेल्थ को अलग से जगह दी गई है।
यहां तक कि इनके भी कई खंड बना दिए हैं, जैसे टेक्नोलाजी में मोबाइल, गजेट्स, इंटरनेट, वर्चुअल रियलिटी, अर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और कंप्यूटिंग जैसे खंड हैं, तो सांइंस में एनवार्यनमेंट, ऑउटर स्पेस, फिजिक्स, जेनेटिक्स और वाइल्डलाइफ को शामिल किया गया है। इसी तरह हेल्थ में मेडिसिन, हेल्थकेयर, मेंटल हेल्थ, न्यूट्रिशन और फिटनेस को रखा गया है। और तो और, लोकल न्यूज के लिए भी अलग से फिल्टरेशन की गई है। अब चौंकाने वाली बात यह है कि इनमें एक भीं कंटेंट गूगल के नहीं हैं। सभी विभिन्न अखबारों, पत्रिकाओं और इंटरनेट मीडिया से संकलित किए गए हैं। वह दूसरों के कंटेंट के सहारे ही अपनी श्रेष्ठता और लोकप्रियता कायम करने में कामयाब है।
यही कारण है कि पिछले कुछ सालों से पूरी दुनिया के पब्लिशर अपने कंटेंट से कमाई का हिस्सा मांग रहे हैं। इसे लेकर सबसे पहले आस्ट्रेलिया में कानून लाया गया। हालांकि गूगल ने इस नियम के खिलाफ आस्ट्रेलिया में अपनी सेवा बंद करने की धमकी दी थी। उसके बाद फ्रांस और स्पेन ने भी इस संबंध में नियम बनाए। इस साल की शुरूआत में ही कनाडा सरकार ने निष्पक्ष-साझाकरण प्रणाली पर एक कानून बनाने की पेशकश करते हुए न्यूज पब्लिशर और टेक कंपनियों के बीच राजस्व बंटवारे में निष्पक्षता लाने का दबाव बनाया था। वैसे इसमें आस्ट्रेलिया, फ्रांस, नीदरलैंड, हंगरी और जर्मनी को सफलता मिल गई है। वहां के प्रकाशकों के साथ मई में गूगल ने कंटेंट के लिए एक राशि साझा करने के लिए समझौता किया है।
इसी संदर्भ में भारत सरकार ने भी आईटी कानून में संशोधन करने की योजना बनाई है। उसके अनुसार गूगल और फेसबुक पर समाचार प्रकाशकों के कंटेंट डिस्प्ले करने से अर्जित किए गए राजस्व को साझा करना पड़ सकता है। यह डिजिटल समाचार प्रकाशकों के लिए एक बड़ी जीत हो सकती है। वैसे इसकी पहल डिजिटल न्यूज पब्लिशर्स एसोसिएशन (डीएनपीए) द्वारा भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग को की गई शिकायत के बाद हो पाई थी। तब डीएनपीए ने गूगल से मिलने वाले ट्रेफिक पर और उसमें निष्पक्षता की खामी का सवाल उठाया था।
बहरहाल, इस संदर्भ में भारत के इलेक्ट्रॉनिक एवं आईटी विभाग द्वारा की गई पहल के बारे में राज्यमंत्री राजीव चंद्रशेखर का कहना है कि वे इस मुद्दे को लेकर गंभीर हैं। इसके मसौदे की तैयारी चल रही है। अभी यह नहीं कहा जा सकता कि टेक कंपनियों को कंटेंट से होने वाली कमाई का कितना हिस्सा न्यूजपेपर्स को देना होगा। वैसे इसके लागू होने पर अल्फाबेट (गूगल और यूट्यूब), मेटा (फेसबुक, इंस्टाग्राम और वाट्सएप) ट्विटर और अमेजन के अलावा कंटेंट का इस्तेमाल करने वाली दूसरी ग्लोबल सर्च इंजन कंपनियां को डिजिटल न्यूज पब्लिशरों को भुगतान करने के लिए मजबूर किया जा सकता है।