
दिल्ली की दौड़
अगस्तय अरुणाचल
“फच्चू आया दिल्ली पढ़ने” – ये कहानी है उन छात्रों की, जो उज्जवल भविष्य की उम्मीद पाले दूरदराज से दिल्ली पहुंचते हैं। दिल्ली के माहौल में खुद को अजनबी पाते हैं। अजनबी माहौल के प्रति खिंचाव और दुराव से संघर्ष करते हैं। फिर भी अपना लक्ष्य नहीं भूलते।
कहने को उपन्यास का नायक बिहार से आया है, लेकिन उन तमाम छात्रों की नुमाइंदगी करता है, जो दूरदराज से पढ़ने के लिए दिल्ली पहुंचते हैं। दिल्ली के चकाचौंध में खोते भी हैं। लेकिन पारम्परिक संस्कारों को नहीं भूलते।
दरअसल छात्र जीवन सिर्फ किताबी ज्ञान तक ही सीमित नहीं होता। विविध रूपों में जीवन विज्ञान की शिक्षा भी मिलती रहती है। संघर्ष करने की सीख मिलती है। अनुभवों का खजाना भरता है। ये सभी मिलकर इंसान के भविष्य निर्माण में मदद करते हैं।
उपन्यास में छात्र जीवन के इन्हीं पहलुओं से जुड़ी कुछ खट्टी-मीठी कहानियां दिलचस्प अंदाज में पिरोई गई हैं। खास बात है कि इसमें हिन्दी के साथ-साथ आवश्यकतानुसार क्षेत्रीय भाषाओं का भी समावेश किया गया है, जो उपन्यास को रोचक बनाता है।
जल्द ही “फच्चू आया दिल्ली पढ़ने” ई-बुक के रूप में इंटरनेट की दुनिया में दस्तक देने जा रहा है। हालांकि पुस्तक प्रेमियों को निराश नहीं होना पड़ेगा। आदेश देने पर सजिल्द पुस्तक भी उपलब्ध होगी। भविष्य में अंग्रेजी भाषा में और ऑडियो बुक के रूप में भी उपन्यास उपलब्ध होगा। पर्यावरण के अनुरूप ऑडियो बुक में अलग-अलग अंदाज में पेशेवर कलाकारों की आवाज उपन्यास की खूबसूरती में चार चांद लगाएगी।
फिलहाल ई-बुक या पेपरबैक पुस्तक के विकल्पों की कीमत जारी नहीं की गई है। लेकिन बताया गया है कि किसी भी विकल्प की कीमत एक सामान्य छात्र की जेब के अनुरूप ही होगा।
उपन्यास के लेखक अगस्त्य अरुणाचल स्वयं दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र रहे हैं। सच कहा जाए, तो ये उपन्यास उनके अपने और उनके साथियों तथा परिचितों के छात्र जीवन की झलक है। इस लिहाज से कहा जा सकता है, कि ये उपन्यास कल्पना का सच्ची घटनाओं के साथ संगम है।
दिल्ली की दौड़
आनंद – अरुण, ए अरुण।
गेट से आ रही आवाज ने अरुण की तंद्रा भंग कर दी। कोफ्त भी हुआ। एकाग्रचित्त होकर वीसीपी पर फिल्म देखने का सिलसिला जो टूट गया था। अरुण मन ही मन बुदबुदाया – ‘ई त आनंदवा है। बहरिये से काहे चिंचिया रहा है’। तब तक फिर आनंद की आवाज गूंजी -
आनंद - हाली आव।
अब अरुण तनाव में आ गया। आनंद उन लंगोटिया यारों में शुमार था, जिनकी आदत बिना दरवाजा खटखटाए घर में घुस जाने की थी। आज घर में घुसना तो दूर, गेट के बाहर से ही चिल्ला रहा था। ऊपर से भोजपुरी भी बोल रहा था। अरुण के मन में तरह-तरह की आशंकाएं पनपने लगीं। ‘का बात है? आनंदवा टेंसन में रहता है, तब्बे भोजपुरी बोलता है’।
कयासों के ज्वार-भाटा में डुबकी लगाते अरुण घर से बाहर निकला। कुछ पूछता, उससे पहले ही आनंद बोल उठा -
आनंद – रिजल्ट आ गईल बा। कालेज चल।
अरुण का दिल तेजी से धड़कने लगा। अरुण को बिल्कुल याद नहीं था कि इंटर का रिजल्ट आज-कल में ही आने वाला है। जल्दी से अपनी साइकिल निकाली। घर में ताला लगाया और तेज पैडल मारते हुए कॉलेज की ओर बढ़ चला।
अरुण के यहां नया-नया वीसीपी आया था। घर में कोई नहीं था। सागर फिल्म में डिंपल कपाडिया का ‘वो वाला’ सीन रिवाइंड करकर के देखने का इससे बेहतर मौका क्या हो सकता था? रिजल्ट आने की बात सुनते ही फिल्म देखने का सारा उत्साह फुर्र हो गया। कॉलेज बंद था। लेकिन नोटिस बोर्ड पर भीड़ थी। इंटर का रिजल्ट निकलने की खबर पूरे शहर में फैल गई थी।
भीड़ की धक्का-मुक्की से निबटकर बाहर निकलते हुए अरुण का चेहरा खिला हुआ था। साइकिल उठाई और जल्दी से घर पहुंचा। लेकिन गेट पर पहुंचते ही सांप सूंघ गया। घर का हिटलर घर के बाहर खड़ा था। अरुण बाबू ने घर में ताला लगा दिया था और बाऊजी गेट पर इंतजार कर रहे थे। अरुण को देखते ही बाऊजी ने आंखों ही आंखों से सवाल दागा - कहां थे बरखुरदार? जवाब में अरुण सीधे बाऊजी के पैरों पर झुक गया। अचकचाए हुए बाऊजी ने फटी हुई आंखों से पूछा - बेटा। इतना तमीजदार कब से बन गए? छूटते ही अरुण ने कहा - 83 परसेंट आया है।
सुनते ही बाऊजी उल्टे पांव हो लिये। ना कुछ कहा, ना ताला खुलने का इंतजार किया। अरुण समझ नहीं पाया कि बाऊजी खुश हैं या उनका मूड खराब हो गया है। अरुण फिर घर में अकेला था। लेकिन अब मन में भारी उहापोह था। वीसीपी पर बार-बार रिवाइंड कर के डिंपल कपाडिया का ‘वो वाला’ सीन देखने का उत्साह ठंडा पड़ चुका था।
थोड़ी देर बाद गेट खुलने की आवाज सुनाई दी। अरुण लगभग भागकर बरामदे पर आया। माई-बाऊजी दोनों अंदर आ रहे थे। जैसे ही अरुण पर नजर पड़ी, माई ने रोते-हंसते उसे अंकवारी में भर लिया।
माई - हम त कहते रहीं नूं - बेटवा कतनो बदमासी करे। एग्जाम में बढ़ियें करी। जीय हमर लाल।
अरुण ने देखा माई-बाऊजी के पीछे कई लोग थे। बाऊजी के दोस्त-साथी, नाते-रिश्तेदार वगैरह-वगैरह। अरुण समझ गया कि बाऊजी ढिंढोरा पीटने निकले थे। उन दिनों फेसबुक का जनता दरबार तो लगता नहीं था, और ना वॉट्स ऐप का संगठित गिरोह था। मोबाइल छोड़िये, लैंडलाइन फोन भी हाई प्रोफाइल लोगों को ही नसीब था। पान दुकान जैसे कुछ सेलेक्टेड प्वाइंट्स होते थे, जहां सिर्फ बात छेड़नी होती थी और बात पछुआ हवा की तरह चारों ओर फैल जाती थी।
ना सिर्फ इंटर का रिजल्ट निकलने की, बल्कि अरुण के नम्बर की खबर भी पूरे शहर में फैल चुकी थी। अरुण ने बाऊजी के हाथ में मिठाईयों के डिब्बे देखे, तब जाकर उसे भरोसा हो गया कि उसके रिजल्ट की बात कुछ सलीकेदार अंदाज में फैली है। माई-बाऊजी के साथ आए मेहमान मिठाई उठाकर पहले अरुण को बधाई देते, उसके बाद ही मिठाई मुंह में डालते। जवाब में अरुण चेहरे पर ढाई सेन्टीमीटर मुस्कान के साथ उनके पैरों पर झुक जाता। जब सारे मेहमान विदा हो गए, तब जाके बाऊजी अरुण से मुखातिब हुए।
बाऊजी – तब? आगे कहवां एडमिसन लेना है? साइंस कॉलेज में अप्लाई कर दो। एडमिसन का जुगाड़ भिड़ाते हैं।
सुनकर अरुण भन्ना गया। मन ही मन भुनभुनाया – ‘बाऊजी को तो बिना जुगाड़ के हाजमोला भी नहीं पचता है’। जैसे-तैसे बाऊजी का उपदेश पचाया और अपने मन की उगल दी - ‘दिल्ली में पढ़ेंगे - हिस्ट्री’। बाऊजी का चेहरा ऐसा बन गया, मानो मिर्ची खा ली हो।
बाऊजी – हिस्ट्री पढ़के का करोगे जी?
अरुण बोला, ‘यूपीएससी देंगे’। सुनकर बाऊजी के माथे पर बल पड़ गया।
बाऊजी - हमनी के टैम में त मदरसिये सब यूपीएससी करता था। तुमसे होगा?
अरुण ने पूरे आत्मविश्वास के साथ बताया कि पिछले साल यही सब्जेक्ट लेकर डीयू के कई छात्रों ने यूपीएससी क्लीकर किया था। लेकिन बाऊजी अब भी मानने को तैयार नहीं थे।
बाऊजी – तुमको हिस्ट्री लेने को के बोला?
अरुण का जवाब था – ‘समीर भईया’। बाऊजी ने उलटकर पूछा –
बाऊजी - ऊहे समिरवा, रामजतन बाबू का लईका? जे दिल्ली में पढ़ता है?
अरुण ने हामी भरते हुए बताया कि समीर भईया इन दिनों गर्मी छुट्टी में घर आए हुए हैं। उनको एडमिशन, यूपीएससी सब के बारे में सब कुछ पता है।
बाऊजी के पास अब बोलने के लिए कुछ था नहीं, लेकिन कुछ ना कुछ तो बोलना था।
बाऊजी – बड़े हो गए हो। जवन मन में आए, करो। हम त हईये हैं झेलने के लिए। कुच्छो चाहिए त बताना।
अरुण की सांस में सांस आई। दिल्ली जाने का पासपोर्ट-वीजा क्लीयर हो गया था। साइकिल उठाई और सीधे पहुंचा अपने समीर भईया के पास। अरुण को देखकर समीर बोले – ‘आव बऊवा। का हाल’।
अरुण और समीर फैमिली फ्रेंड थे। अरुण जब छोटा था तभी से समीर उसे बऊवा बुलाते थे। अब बऊवा इंटर पास कर गया था। लेकिन समीर भईया के लिए अभी तक बऊवा था।
‘ठीके बा भीया। आईएससी के रिजल्ट आ गईल बा। 83 परसेंट बा’।
समीर भईया खिल उठे – ‘जीयह हमर भाई’। फिर आवाज लगाई – ‘ए मां। अरुण आईल बाड़े। बेलगरामी खियाव त’।
बेलग्रामी अरुण की पसंदीदा मिठाई थी। लेकिन दिल्ली जाने की धुन ने आज बेलग्रामी को बेस्वाद कर दिया था। उधर समीर भी कुछ सोच रहे थे। जैसे ही अरुण का बेलग्रामी खाना खत्म हुआ, समीर ने हुक्म दिया – ‘चsलs’
अरुण ने पूछना जरूरी नहीं समझा कि समीर भईया कहां चलने के लिए कह रहे हैं। चुपचाप अपनी साइकिल उनकी साइकिल के पीछे लगा दी। समीर ब्लॉक के सामने वाले मोहल्ले में एक घर के सामने रुके। आवाज लगाई – ‘रमेस, ए रमेस’।
घर के भीतर से रमेश की आवाज आई – ‘हांsss’
समीर को शायद उम्मीद नहीं थी कि रमेश घर पर होगा। इसलिए थोड़ा हड़बड़ा गए। पूछे – ‘बाsड़s’?
‘बानी तब्बे नू बोल तानी’। बोलते-बोलते रमेश घर से बाहर निकल आया। अरुण को लगा कि उसने रमेश को कहीं देखा है। शायद किसी दूसरे स्कूल में पढ़ते थे और सीनियर थे। लेकिन अरुण को रमेश के बारे में जानने की कोई दिलचस्पी नहीं थी। तब तक समीर ने अरुण का परिचय दिया – ‘ई अरुण बाड़े। रामाधार चा के लईका। आजे इनकर रिजल्ट आइल हा। इनको दिल्ली ले चले के बा। तूं आज जा ताड़ नूं। इनको साथे ले जा’।
फिर जरा अर्थ भरे भाव से कहा – ‘रवि से मिलवा दी हs’। रमेश ने हामी भर दी।
ये रवि कौन था – उससे क्यों मिलना था – अरुण समझा नहीं। अभी तक समझ में इतना ही आया कि रमेश भी दिल्ली में पढ़ता है और आज ही दिल्ली जाने वाला है।
दरअसल हर साल की तरह इस बार भी बिहार बोर्ड का रिजल्ट लेट आया था। डीयू में एडमिशन के लिए आवेदन फॉर्म भरने की तारीख गुजर चुकी थी। समीर और रमेश की बातचीत से अरुण समझ गया कि फॉर्म ना भरने के बावजूद कोई प्रभावशाली छात्र एडमिशन करा सकता है। शायद रवि ऐसा ही कोई प्रभावशाली छात्र था।
मगध एक्सप्रेस आने के घंटा भर पहले अरुण अपने बैग के साथ प्लेटफार्म पहुंच गया। रमेश कहीं नहीं दिखा। अरुण के दिल में एक के बाद एक आशंकाएं पनपने लगीं - कहीं रमेश ने दिल्ली जाने का प्लैन कैंसिल तो नहीं कर दिया? आधे घंटे बाद जब रमेश नजर आया, तब जाकर अरुण के दिल को चैन मिला। रमेश ने भरोसा दिया – ‘घबड़ाना नहीं है। मार्क्स बढ़ियां है। एडमिशन हो जाएगा’।
लेकिन रमेश का दिलासा अरुण को पच नहीं रहा था। दिल बुझ रहा था। आवेदन फॉर्म ना भरने पर दाखिला नहीं मिलने का डर सता रहा था। पता नहीं, हिस्ट्री मिलेगा कि नहीं, किस कॉलेज में एडमिशन होगा जैसे सवाल जेहन को कुरेद रहे थे। कब मगध एक्सप्रेस आई, कब रमेश की सीट पर जाकर बैठा और कब गाड़ी चल पड़ी – अरुण को पता ही नहीं चला।