
बदलेगी घड़ियों की टिकटिक
अमेरिकी वैज्ञानिकों ने अब तक की सबसे सटीक घड़ी बनाई है. यह घड़ी मिलीमीटर के हिसाब से टाइम का फर्क बता सकती है. और आइंस्टाइन का सिद्धांत एक बार फिर सबसे सटीकता से साबित हुआ.
आइंस्टाइन का सापेक्षता सिद्धांत कहता है कि पृथ्वी जैसी विशाल वस्तु सीधे नहीं बल्कि घुमावदार रास्ते पर चलती है जिससे समय की गति भी बदलती है. इसलिए अगर कोई व्यक्ति पहाड़ी की चोटी पर रहता है तो उसके लिए समय, समुद्र की गहराई पर रहने वाले व्यक्ति की तुलना में तेज चलता है.
अमेरिकी वैज्ञानिकों ने इस सिद्धांत को अब तक के सबसे कम स्केल पर मापा है, और सही पाया है. उन्होंने अपने प्रयोग में पाया कि अलग-अलग जगहों पर ऊंचाई के साथ घड़ियों की टिक-टिक मिलीमीटर के भी अंश के बराबर बदल जाती है.
नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ स्टैंडर्ड्स एंड टेक्नोलॉजी (NIST) और बोल्डर स्थित कॉलराडो यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाले जुन ये कहते हैं कि उन्होंने जिस घड़ी पर यह प्रयोग किया है, वह अब तक की सबसे सटीक घड़ी है. जुन ये कहते हैं कि यह नई घड़ी क्वॉन्टम मकैनिक्स के लिए कई नई खोजों के रास्ते खोल सकती है.
जुन ये और उनके साथियों का शोध प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका नेचर में छपा है. इस शोध में उन्होंने बताया है कि कैसे उन्होंने इस वक्त उपलब्ध एटोमिक क्लॉक से 50 गुना ज्यादा सटीक घड़ी बनाने में कामयाबी हासिल की.
कैसे साबित हुआ सापेक्षता का सिद्धांत
एटोमिक घड़ियों की खोज के बाद ही 1915 में दिया गया आइंस्टाइन का सिद्धांत साबित हो पाया था. शुरुआती प्रयोग 1976 में हुआ था जब ग्रैविटी को मापने के जरिए सिद्धांत को साबित करने की कोशिश की गई.
इसके लिए एक वायुयान को पृथ्वी के तल से 10,000 किलोमीटर ऊंचाई पर उड़ाया गया और यह साबित किया गया कि विमान में मौजूद घड़ी पृथ्वी पर मौजूद घड़ी से तेज चल रही थी. दोनों घड़ियों के बीच जो अंतर था, वह 73 वर्ष में एक सेकंड का हो जाता.
इस प्रयोग के बाद घड़ियां सटीकता के मामले में एक दूसरे से बेहतर होती चली गईं और वे सापेक्षता के सिद्धांत को और ज्यादा बारीकी से पकड़ने के भी काबिल बनीं. 2010 में NIST के वैज्ञानिकों ने सिर्फ 33 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर रखी घड़ी को तल पर रखी घड़ी से तेज चलते पाया.
कैसे काम करती है यह घड़ी
दरअसल, सटीकता का मसला इसलिए पैदा होता है क्योंकि अणु गुरुत्वाकर्षण से प्रभावित होते हैं. तो, सबसे बड़ी चुनौती होती है कि उन्हें गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से मुक्त किया जाए ताकि वे अपनी गति ना छोड़ें. इसके लिए NIST के शोधकर्ताओं ने अणुओं को बांधने के लिए प्रकाश के जाल प्रयोग किए, जिन्हें ऑप्टिकल लेटिस कहते हैं.
जुन ये की बनाई नई घड़ी में पीली धातु स्ट्रोन्टियम के एक लाख अणु एक के ऊपर एक करके परतों में रखे जाते हैं. इनकी कुल ऊंचाई लगभग एक मिलीमीटर होती है. यह घड़ी इतनी सटीक है कि जब वैज्ञानिकों ने अणुओं के इस ढेर को दो हिस्सों में बांटा तब भी वे दोनों के बीच समय का अंतर देख सकते थे.
सटीकता के इस स्तर पर घड़ियों सेंसर की तरह काम करती हैं. जुन ये बताते हैं, "स्पेस और टाइम आपस में जुड़े हुए हैं. और जब समय को इतनी सटीकता से मापा जा सके, तो आप समय को वास्तविकता में बदलते हुए देख सकते हैं.”
अंतरिक्ष में पिंडों के नेविगेशन के लिए खास तरह की घड़ियों की जरूरत होती है जिन्हें परमाणु घड़ियां (Atomic Clock) कहते हैं. अंतरिक्ष में रोबोटिक अन्वेशषकों के नेविगेशन और जीपीएस सैटेलाइट (GPS Satellite) संचालन को बेहतर बनाने के लिए वैज्ञानिक लंबे से गहरे अंतरिक्ष के लिए परमाणु घड़ी (Deep Space Atomic Clock) पर काम कर रहे हैं. इस कड़ी में नासा के वैज्ञानिकों ने एक बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली है. उन्होंने इस परमाणु घड़ी को उन्होंने वर्तमान में उपयोग मे लाई जा रही अंतरिक्ष के लिए परमाणु घड़ियों की तुलना मे 10 गुना ज्यादा स्थायित्व दे दिया है. वर्तमान की ये परमाणु घड़ियां जीपीएस सैटेलाइट में इस्तेमाल की जा रही हैं.
वैज्ञानिकों का कहना है कि परमाणु घड़ियां Atomic Clock) गहरे अंतरिक्ष अन्वेषण और वैश्विक नेविगेशन सैटेलाइट तंत्र (Global Navigation Satellite System) के लिए बहुत जरूरी हैं. उन्होंने अब अंतरिक्ष के लिए परमाणु घडियों का ज्यादा लंबे समय तक लगातार समय मापने की क्षमता को बेहतर कर लिया है. हालांकि अंतरिक्ष की परमाणु घड़ियां कम स्थायित्व के साथ ही वैश्विक नेविगेशन की तकनीक पर काम कर रही थीं, उन्हें गहरे अंतरिक्ष के नेविगेशन (Space Navigation) के लिए उपयोग में नहीं लाया जा सकता था.
इस उन्नति के बारे में नेचर जर्नल में रिपोर्ट के रूप में प्रकाशित कर बताया गया है. इस रिपोर्ट के मुताबिक अभी तक इस्तेमाल में लाई जाने वाले परमाणु घड़ियों (Atomic Clocks) की उपयोगिता बहुत ही सीमित रही है क्योंकि उनके कार्यनिष्पादन में अंतरिक्ष (Space) के कठिन हालात बहुत सीमाएं ला देते हैं. परमाणु घड़ियां अंतरिक्ष में दो वस्तुओं के बीच की दूरी नापने के लिए इस्तेमाल में लाई जाती हैं. इसके लिए वे विशिष्ट परमाणुओं द्वारा प्रकाश की बहुत ही स्थिर और सटीक आवर्तियों (Light Frequency) को मापती हैं.
ये परमाणु घड़ियां (Atomic Clocks) दशकों तक अति स्थिर रहती हैं, लेकिन उनकी डिजाइन बहुत बड़ी होती है, वे अधिक ऊर्जा खाती हैं और वातावरण में बदलाव के प्रति बहुत संवेदनशील होती हैं. इस वजह से उन्हें अंतरिक्ष यात्रा संचालन और गहरे अंतरिक्षीय अन्वेषणों के लिए बहुत ही संघनित रखना होता है. गहरे अंतरिक्ष (Deep Space) के लिए परमाणु घड़ी हमारे फोन में जीपीएस शुरू करने के वाली सैटेलाइट (GPS Satellite) आधारित परमाणु घड़ी का गंभीर उन्नयन या अपडेट है. यह नई तकनीक लंबे दूरी जैसे की मंगल ग्रह की यात्रा के लिए अंतरिक्ष यान नेविगेशन को और स्वचलित बना सकती है.
फिलहाल पृथ्वी (Earth) का चक्कर लगाने वाले जीपीएस सैटेलाइ (GPS Satellite) की परमाणु घड़ियों (Atomic Clock) को रोजाना दो बार अपडेट करने की जरूरत पड़ती है. ऐसे धरती पर स्थापित परमाणु घड़ियों के मुकाबले इन घडियों के प्राकृतिक रूप से खिसकने के कारण करना पड़ता है. पृथ्वी से अंतरिक्ष यान की स्थिति और उसकी दिशा के सुनिश्चित करने के लिए इन घड़ियों का उपयोग किया जाता है. पृथ्वी से यान की ओर संकेत भेजे जाते हैं, जो फिर वापस पृथ्वी तक आते हैं. इसमें लगने वाले समय से यान की दूरी का पता चलता है.
नासा (NASA) के मुताबिक बहुत सारे संकेत भेज कर अंतरिक्ष यान के द्वारा तय किया गया रास्ता पता किया जाता है. और इसके लिए सटीक घड़ी (Precise Clock) की जरूरत होती है जो एक सेकेंड के अरबवें हिस्से तक को माप सके. नासा के जेपीएल में काम करने वाले परमाणु घड़ी (Atomic Clock) भौतिकविद एरिक बर्ट का कहना है कि एक नौनोसेकेंड की अनिश्चितता एक फुट की अनिश्चितता पैदा कर देती है.
फिलहाल इंजीनियर धरती पर रेफ्रीजरेटर के आकार की परमाणु घड़ियों (Atomic Clock) का उपयोग कर रहे हैं जिससे वे इन संकेतों का समय नोट कर सकें. लेकिन मंगल पर फिर लंबे अभियानों पर रोबोट के लिए संकेतों का इंतजार करने से तेजीसे कई मिनट से घंटों का समय जुड़ सकता है. ऐसे में यह देरी अच्छी मात्रा में कम की जा सकती है यदि अंतरिक्ष यान (Spacecraft) में ऐसे परमाणु घड़ियां हों जो खुद अपनी स्थिति और दिशा का मापन कर सकें. इसके लिए उनके स्थायित्व का बहुत महत्व है. डीप स्पेस एटोमिक क्लॉक (DSAC) का जो परीक्षण जून 2019 से चल रहा था. उस के साल 2021 के अगस्त में पूरा हो हो गया.