भारतीय क्रिकेट: एक मजबूत दावेदार की चूक
शाहिद ए चैधरी
संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में आईसीसी पुरुष टी-20 विश्व कप आरंभ होने से पहले भारतीय क्रिकेट टीम को ट्राफी उठाने का सबसे मजबूत दावेदार माना जा रहा था, विशेषकर इसलिए कि हमारी टीम के सभी खिलाड़ी आईपीएल, जो दुबई, शारजाह व अबुधाबी में ही खेला गया, के दौरान अच्छी फॉर्म व लय में थे और उन्हें इन धीमी विकेटो पर खेलने का अच्छा अभ्यास भी हो गया था। इंग्लैंड व ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ प्रैक्टिस मैचों में भी लड़कों ने अपने शानदार प्रदर्शन से दिखाया कि वह हर चुनौती का सामना करने और कप उठाने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं।
लेकिन मुख्य प्रतियोगिता के पहले दो मैचों में पाकिस्तान व न्यूजीलैण्ड के विरुद्ध करारी शिकस्त मिलने के बाद अब भारत का सेमी फाइनल में पहुंचना भी ग्रुप बी के शेष तीनों मैचों में अपने प्रदर्शन से अधिक दूसरी टीमों के प्रदर्शन पर निर्भर हो गया है। इसलिए यह प्रश्न प्रासंगिक है कि क्या सातवें आईसीसी पुरुष टी-20 विश्व कप में भारत का सफर समाप्त हो गया है? क्रिकेट अनिश्चितताओं व चमत्कारों का खेल है और टी-20 फॉर्मेट तो लाटरी जैसा है, जिसमें कोई भी टीम किसी को भी हरा सकती है। किसी एक दिन किसी भी टीम का गेंद या बल्ले से एक अच्छा प्रदर्शन, मैच का रुख पलट देता है।
इसलिए प्रतियोगिता में आगे क्या होगा, इस बारे में कोई निश्चित भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। मगर फिलहाल स्थिति यह है कि भारत का सेमी फाइनल में पहुंचना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य हो गया है। भारत के प्रतियोगिता में आगे बढ़ने की हल्की सी उम्मीद दो बातों पर निर्भर है। एक, भारत अपने शेष तीनों मैच, जो अफगानिस्तान, स्कॉटलैंड व नामीबिया के विरुद्ध होने हैं, जबरदस्त अंतर से जीते जिससे कि हमारे 6 अंक हो जाएं साथ ही इस समय जो नेट रन रेट -1.609 है, वह प्लस में आ जाए। दूसरा यह कि न्यूजीलैण्ड के भी जो शेष तीन मैच अफगानिस्तान, स्कॉटलैंड व नामीबिया के खिलाफ बचे हैं उनमें से वह अफगानिस्तान को तो आवश्यक रूप से हराए, लेकिन स्कॉटलैंड व नामीबिया में से एक या दोनों से हार जाए, वह भी बड़े अंतर से। साथ ही अफगानिस्तान व पाकिस्तान अपने शेष दोनों मैच हारें। यह गणित नामुमकिन सा प्रतीत होता है, लेकिन क्रिकेट इतिहास अनहोनी घटनाओं से भरा हुआ है।
आखिर प्रतियोगिता से पहले किसने सोचा था कि भारत की मजबूत टीम इस स्थिति में आ जायेगी कि उसे सेमी फाइनल में पहुंचने के भी लाले पड़ जायेंगे? पहले मैच में पाकिस्तान के खिलाफ हार के कारण समझ में आ सकते हैं कि रोहित शर्मा व केएल राहुल को संयोग से ऐसी गेंदें मिलीं जिनसे बचना लगभग असंभव था, इसलिए उन्हें बॉल्स ऑफ द टूर्नामेंट कहा जा रहा था और फिर जब पाकिस्तान की बल्लेबाजी आयी तो ओस के कारण गेंदबाजी करना कठिन व बल्लेबाजी करना आसान हो गया था। लेकिन दूसरे मैच में न्यूजीलैण्ड के विरुद्ध हार के कारणों को समझ पाना बहुत मुश्किल है। इस दूसरे मैच में तो हमारी टीम ऐसे खेली जैसे राष्ट्रीय नहीं बल्कि क्लब की टीम खेल रही हो, जिसके पास प्लान ए फेल हो जाने के बाद प्लान बी था ही नहीं, अगर था तो वह कहीं दिखायी नहीं दिया।
टॉस हारने के बाद पहले बल्लेबाजी करते हुए भारत ने अपने निर्धारित 20 ओवर में 7 विकेट खोकर 110 रन बनाये (जो अच्छे खेल रहे विकेट पर न्यूजीलैण्ड को चुनौती देने के लिए पर्याप्त ही नहीं थे)। भारतीय खिलाड़ी या तो डॉट बॉल खेल रहे थे या बड़ी हिट मारने के चक्कर में बाउंड्री लाइन पर कैच आउट हो रहे थे। 120 गेंदों में से 54 गेंदे यानी 9 ओवर डॉट खेलना किसी भी टीम को मुकाबले में बनाये नहीं रख सकता। वेस्टइंडीज के लीजेंड कप्तान क्लाइव लायड ने एक बार कहा था, ‘क्रिकेट के छोटे फॉर्मेट में सिंगल लेकर स्ट्राइक रोटेट करना बड़ी हिट से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है; क्योंकि ऐसा करने से ही बड़े स्कोर की नींव रखी जाती है।’ भारतीय बैटर्स यही काम नहीं कर रहे थे। इतनी सारी डॉट बॉल्स खेलने के दो ही अर्थ हो सकते हैं- एक, हार के डर से बैटर्स रिस्क लेने में संकोच कर रहे थे और पुरानी कहावत है ‘नो रिस्क, नो गेम’। वैसे भी टी-20 ऐसा गेम है, जिसमें रिस्क लेने का साहस तो दिखाना ही पड़ता है। फिर जब बड़े शॉट खेलने का रिस्क लिया भी तो गेंद को इस लिहाज से टाइम नहीं किया कि दुबई की धीमी पिचों पर गेंद टप्पा खाने के बाद अतिरिक्त धीमी आती है। दूसरा यह कि पाकिस्तान से मैच के बाद जो मैदान से बाहर के अनावश्यक दबाव व विवाद थे, उनका बोझ हमारे खिलाड़ी अपने सिरों पर उठाये हुए थे। क्रिकेट एक खेल है और खेल में हार भी होती है और जीत भी। लेकिन अगर पराजय में नासमझ लोग साम्प्रदायिकता ले आयें, जिस पर टीम को स्पष्टीकरण देना पड़े तो इससे खिलाड़ियों का मनोबल टूटता है, आखिर वह भी इंसान हैं और इस नाते मानसिक दबाव में टूट भी सकते हैं।
राष्ट्र प्रेम का अर्थ अपनी टीम का हौसला बढ़ाना होता है न कि उसे ट्रोल करना। इस दृष्टि से देखा जाये तो न्यूजीलैण्ड से मिली हार की बड़ी वजह ट्रोलिंग के कारण खिलाड़ियों पर पड़ा मानसिक दबाव भी है, जिस कारण वह अपनी क्षमता के अनुरूप प्रदर्शन करने में असफल रहे। टीम की हार के बाद अब जो यह सवाल उठ रहे हैं कि क्या विराट कोहली यह सोच रहे थे कि उनकी कप्तानी बिना आईसीसी ट्राफी के समाप्त हो जायेगी? क्या रोहित शर्मा यह सोच रहे थे कि उनसे सलामी बैटर की भूमिका क्यों छीनी गई? क्या आईपीएल के कारण खिलाड़ी बहुत थक चुके थे? क्या अब हमारे बैटर्स स्पिन गेंदबाजी नहीं खेल पाते हैं? क्या भारत ने सही टीम का चयन नहीं किया? क्या युज्वेंद्र चहल व अवेश खान को टीम का हिस्सा होना चाहिए था? क्या आउट ऑफ फॉर्म चल रहे हार्दिक पंड्या व भुवनेश्वर कुमार पर पूर्व ख्याति के आधार पर गलत निवेश किया गया? क्या मुख्य कोच रवि शास्त्री के होते हुए महेंद्र सिंह धोनी को मेंटर बनाना दुरुस्त नहीं था; क्योंकि कई सारे बावर्ची मिलकर हंडिया को ही खराब कर देते हैं?
इस किस्म के अनगिनत सवाल हैं, लेकिन यह ‘क्या’ और ‘अगर-मगर’ वाले प्रश्न सब बेकार के हैं। इनका कोई महत्व नहीं है। टीम जब किसी प्रतियोगिता में जाती है तो अपनी पूरी तैयारी और पेश आने वाले अनुमानित अनुमानों को कवर करके जाती है। भारत ने भी ऐसा ही किया था, लेकिन खेल है जिसमें टीमें हारती भी हैं और जीतती भी हैं। बहरहाल, हारने के बाद ट्रोलिंग खिलाड़ियों का मनोबल तोड़ देती है और शायद इसी वजह से विराट कोहली ने न्यूजीलैण्ड से मैच के बाद कहा, “यह बहुत अजीब था कि मैदान में उतरते हुए हमारी बॉडी लैंग्वेज ठीक नहीं थी।” इसलिए भारत की हार के लिए बेतुके, खेल की समझ न रखने वाले ट्रोल्स भी काफी हद तक दोषी हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)