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लड़की हैं लड़कर लेंगे.....
प्रदीप श्रीवास्तव
पिछले एक पखवाडे से उत्तर प्रदेश और उसके जरिये पूरे हिंदुस्तान में जो एक नेता सबसे ज्यादा सुर्खियां बटोर रहा है, वो प्रियंका गांधी हैं। इस दौरान न सिर्फ उन्होंने उत्तर प्रदेश के राजनीतिक घटनाक्रम पर लगातार सक्रिय राजनीति करती हुई दिखी हैं बल्कि महिलाओं के लिए आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में 40 फीसदी सीटें कांग्रेस की तरफ से देने की घोषणा करके उन्होंने प्रदेश के स्तर पर ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय राजनीति के स्तर पर भी हलचल मचा दी है। क्योंकि पिछले 25 सालों से संसद में महिलाओं के 33 फीसदी आरक्षण का रूका हुआ बिल फिर से तमाम राजनीतिक दलों से सवाल पूछने लगा है कि आखिर महिलाओं के राजनीतिक उत्थान के लिए उनकी की जाने वाली बड़ी-बड़ी घोषणाएं कितनी वास्तविक हैं और उनमें कितना पाखंड है? सिर्फ राजनीतिक पार्टियों के भीतर ही प्रियंका गांधी की सक्रियता का गुपचुप विमर्श नहीं हो रहा बल्कि देश के अनेक राजनीतिक विश्लेषक साफ शब्दों में यह कहने लगे हैं कि प्रियंका गांधी ने जिस तरह से अपनी सक्रियता के चलते लखीमपुर खीरी कांड को देश के राजनीतिक हलचल का मुख्य मुद्दा बनाया है और जिसके चलते सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह से स्वतः संज्ञान लिया, वह संभव न होता अगर प्रियंका इस कदर लखीमपुर खीरी कांड को लेकर सक्रिय न हुई होतीं। हालांकि यह पहला मौका नहीं है जब उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी राजनीतिक रूप से सक्रिय हुई हैं। साल 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले भी वह सक्रिय हुई थीं, लेकिन नतीजों के रूप में तब उनकी इस सक्रियता ने कांग्रेस के उत्साह में कोई बढ़ोत्तरी करने की बजाय उसे हताश ही किया था। इसके बाद वह काफी समय तक खुद राजनीतिक मंच से गायब रहीं। लेकिन पिछले कुछ दिनों में जिस तरह से वो नई ताजगी के साथ उत्तर प्रदेश में सक्रिय हुई हैं, उसका अभी तक तो कमाल का रिस्पोंस मिल रहा है। प्रियंका गांधी भी इस बार पहले से ज्यादा होमवर्क करके मैदान में उतरी हैं और न सिर्फ उन्होंने राजनीति के आक्रामक मुहावरे अपनी इस सक्रियता में शामिल किया है बल्कि राजनीतिक विमर्श तय करने का आत्मविश्वास भी उनमें झलक रहा है। 3 अक्टूबर 2021 को वह जिस तरह रात 12ः30 बजे लखनऊ की सड़कों पर उतरकर पैदल ही लखीमपुर खीरी की तरफ चल दिया, वह उनका कोई आंदोलनवादी नाटकभर नहीं था बल्कि उनके उस फैसले में जबरदस्त राजनीतिक दृढ़ता थी। इसलिए जब उन्हें दोबारा गिरफ्तार करके हिरासत में ले लिया गया तो वह बिना किसी तरह की हड़बड़ाहट दिखाते हुए राजनीतिक परिपक्वता से इस हिरासत को भुनाया। भले उनका झाडू लगाना राजनीति का बड़ा घिसापिटा सिंबल रहा हो, लेकिन इस सिंबल को भी उन्होंने अपनी ईमानदाराना सक्रियता से विश्वसनीय बना दिया। लखीमपुर खीरी के बाद जब वह 10 अक्टूबर को बनारस में किसान न्याय रैली को संबोधित करने के लिए पहुंचीं तो उनकी इस सक्रियता का नतीजा साफ दिखने लगा था। प्रधानमंत्री का लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र होते हुए भी यहां उन्हें सुनने आयी भीड़ उम्मीद से कहीं बहुत ज्यादा थी। अगर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने अपनी ‘विजय रथ’ यात्रा को ज्यादा ताकतवर बनाने के लिए अतिरिक्त रूप से सक्रिय हुए हैं,तो उसमें भी प्रियंका गांधी की सक्रियता का ही असर था। सबसे बड़ी बात तो यह है कि प्रियंका गांधी की उत्तर प्रदेश में सक्रियता के पहले अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी जितना उत्साहित लग रही थी, प्रियंका गांधी को आम लोगांे के बीच मिल रहे समर्थन को देखकर वह कुछ हतोत्साहित हो गई है। अगर इस पूरे क्रम को देखें तो भाजपा भले यह प्रचार करने की कोशिश कर रही हो कि प्रियंका के सक्रिय होने से आम लोगों में उनका समर्थन बढ़ने से भाजपा को नुकसान नहीं उल्टे फायदा होगा, क्योंकि इससे विपक्ष के वोट बंटेंगे। लेकिन हकीकत यह है कि भाजपा का यह लोकप्रिय निष्कर्ष सिर्फ बाहरी दिखावे के लिए है। अंदर की बात जो तमाम विश्वसनीय स्रोतों से पता चल रही है, वह यह है कि भाजपा भी प्रियंका गांधी की इस सक्रियता से चिंतित हो उठी है। लखीमपुर खीरी में जिस तरह से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कई दिन बीत जाने के बाद अचानक डैमेज कंट्रोल करने में सक्रियता दिखायी, वह इसी निष्कर्ष का नतीजा थी। अगर केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा के बेटे को एसआईटी ने गिरफ्तार किया और बहुअपेक्षित बेल नहीं संभव होने दी, तो इसमें योगी आदित्यनाथ सरकार की डैमेज कंट्रोल का ही असर था। प्रियंका गांधी न सिर्फ पूरी तैयारी के साथ उत्तर प्रदेश में सक्रिय हुई हैं बल्कि उनकी यह सक्रियता देश के राजनीतिक माहौल को भी बदलने लगा है। इसमें उनकी कई चीजों का योगदान है। निःसंदेह एक बड़ा योगदान तो उनके व्यक्तित्व का ही है। राजनीतिक विश्लेषक या समाजशास्त्री कुछ भी कहें लेकिन हकीकत यही है कि सार्वजनिक जीवन में आपके निजी व्यक्तित्व और पारिवारिक पृष्ठभूमि दोनो का जबरदस्त असर होता है। संयोग से प्रियंका गांधी को दोनो खूबियां भरपूर रूप से हासिल हैं। इसके साथ ही उन्होंने पिछले कुछ सालों की राजनीतिक हिस्सेदारी से यह समझ चुकी हैं कि अगर आप हिंदुस्तानी जुबान में धाराप्रवाह और जुमलेबाजी के साथ भाषण नहीं दे सकते, तो आसानी से आम लोगों के बीच आपकी जगह नहीं बनेंगी। लगता है प्रियंका गांधी ने इस हिस्से पर भी काफी काम किया है। तभी तो उनके हाल के राजनीतिक भाषणों में न सिर्फ जबरदस्त प्रवाह देखने को मिलता है बल्कि मोदी जी की तरह वह भी जुमलेबाजी करने में माहिर हो गई हैं। जैसा कि उन्होंने बनारस में किसान न्याय रैली को संबोधित करते हुए कहा, ‘हमारे प्रधानमंत्री जी दुनिया के कोने-कोने घूम सकते हैं, लेकिन अपने देश के किसानों से बात करने के लिए घर से मात्र 10 किलोमीटर दिल्ली के बाॅर्डर तक नहीं जा सकते। अपने आपको गंगा पुत्र कहते हैं, लेकिन गंगा मैय्या के आशीर्वाद से खेतों में फसल लहलहाने वाले गंगा पुत्रों का अपमान करते हैं।’ वास्तव में उनके जुमलेबाजियों से सजे ये संबोधन और उनका सुदर्शन व्यक्तित्व आम लोगों के बीच उनकी तेजी से जगह बना रहा है। जिस तरह से प्रियंका गांधी लखीमपुर खीरी में मारे गये किसानों के घरों की महिलाओं से गले मिलीं, वह गले मिलना राजनीतिक खानापूर्ति भर नहीं थी। उसमें गर्मजोशीभरी आत्मीयता की बाॅडीलैंग्वेज थी। यही वजह है कि जिस मुहल्ले में उनहोंने झाडू लगाया, वहां मीडिया वालों से बात करते हुए तमाम लोगों को कांग्रेस को वोट देने की बात कही, हो सकता है यह उनके व्यक्तित्व का ताजा ताजा असर हो और वोट देने तक यह असर खत्म हो जाए। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश में तीसरे नंबर की कांग्रेस को राजनीतिक पहल देने के मामले में पहले पायदान पर खड़ा कर दिया है। महज 6 फीसदी के आसपास वोट पाने के बाद भी उन्होंने करीब 20 या इससे ज्यादा फीसदी वोट पानेवाली सपा और बसपा को मानक विपक्ष की हैसियत से बाहर कर दिया है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि जो भाजपा वर्षों से कांग्रेस पर महिलाओं के साथ भेदभाव करने का आरोप लगाती रही है, प्रियंका गांधी ने 301 लोकसभा सीटों वाली और अपने सहयोगियों के साथ 2 तिहाई बहुमत लोकसभा में रखने वाली भाजपा के पाले में महिला आरक्षण बिल को नये सिरे से पेश करने और पास करवाने का दबाव बना दिया है।