
सावन भादों में भी नहीं होती ऐसी बारिश
लोकमित्र
देश में आमतौर पर सितंबर महीने के मध्य तक मानसून का सीजन खत्म हो जाता है.लेकिन इस साल अक्टूबर खत्म होने की तरफ बढ़ रहा है,लेकिन देश के कई इलाकों में अब भी न केवल मूसलाधार बारिश हो रही है बल्कि हाहाकारी तबाही भी हो रही है. बीते एक हफ्ते में दिल्ली के साथ-साथ केरल, मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तराखंड में भारी बारिश हुई.उत्तराखंड में तो इस बारिश से अब तक 50 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई है और एक दर्जन से ज्यादा लोग अभी तक गायब हैं. मध्यप्रदेश को लेकर हालांकि ज्यादा सुर्खियां नहीं बनीं क्योंकि यहां जान की तबाही नहीं हुई,लेकिन हकीकत यह है कि यहां भी इस गैर जरूरी मौसम की बारिश ने मौसम के जानकारों को हैरान कर दिया है क्योंकि 16-17 अक्टूबर 2021 को हुई बारिश ने प्रदेश के किसी एक दो जिलों में नहीं बल्कि 46 जिलों में रिकॉर्ड बनाया है.
करीब 30 घंटों में सबसे ज्यादा बारिश श्योपुर जिले में हुई 312 मिलीमीटर.इतनी बारिश तो यहां इतनी अवधि में सावन-भादों में भी कभी नहीं होती.दशहरे के बाद तो छींटे भी हर साल नहीं पड़ते.सवाल है देश के कई हिस्सों में आखिर यह तबाही की बारिश क्यों आयी ? उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक आयी इस तबाही के लिए वैज्ञानिक कई कारणों को जिम्मेवार मानते हैं.उनके मुताबिक़ देर से मानसून के लौटने और कई जगहों पर कम दबाव का क्षेत्र बनने के कारण यह बारिश हो रही है.लेकिन ये तो बारिश की वजह है.सवाल है कि इस वजह की क्या वजह है ? क्या यह तात्कालिक और कुदरती है? अगर आमतौर पर सितंबर तक मानसून लौट जाता है,तो आखिर इस बार ऐसा क्या हुआ कि मानसून नहीं लौटा ?
मौसम वैज्ञानिक कहते हैं कि दूसरे सालों में इस दौरान दक्षिण-पश्चिम मानसून लौटता है और पश्चिमी विक्षोभ के चलते देश के सुदूर उत्तरी हिस्से में बारिश या फिर बर्फबारी होती है जैसे कि इस साल भी अक्टूबर के दूसरे सप्ताह में लद्दाख और कश्मीर में सीजन की पहली बर्फबारी हुई . लेकिन इसके साथ ही यह भी हुआ कि इसी दौरान दो निम्न दबाव क्षेत्र, एक अरब सागर में और दूसरा बंगाल की खाड़ी में भी बने,जिस कारण केरल तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, ओडिशा,पश्चिम बंगाल और बिहार में भारी बारिश हुई.जबकि बाक़ी सालों में इस दौरान महज गरज के साथ कुछ छींटे और कहीं कहीं छिटपुट बारिश ही होती है. भारत मौसम विभाग (आईएमडी) के महानिदेशक मृत्युंजय मोहपात्रा की मानें तो दक्षिणी पश्चिमी मानसून के लौटने में हुई देरी के कारण ही ओडिशा, उत्तर पूर्व और दक्षिण भारत में बारिश हो रही है जो 25 अक्टूबर तक जारी रह सकती है.
कहने का मतलब तबाही अभी खत्म नहीं हुई केरल में जरूर 19 अक्टूबर के बाद से बारिश कमजोर पड़कर खत्म होती लग रही है,लेकिन मध्य भारत में अभी भी कमजोर दबाव का क्षेत्र बना हुआ है.इस कारण उत्तरी भारत में यह तबाही रह रहकर आगामी इतवार-सोमवार यानी 24-25 अक्टूबर 2021 तक बनी रह सकती है.भारत मौसम विभाग के मुताबिक इस कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में जानमाल की और तबाही हो सकती है.आईएमडी ने रेड अलर्ट जारी किया है.लेकिन सवाल है कि किसान इस रेड अलर्ट का करे क्या ? इससे जान ही तो बच सकती है,फसल कैसे बचेगी.पका धान खेत में ही माटी होने से कैसे बचेगा ? महाराष्ट्र में इस साल सरकार के मुताबिक जून से अक्टूबर 2021 के दूसरे सप्ताह तक राज्य में भारी बारिश और बाढ़ के चलते 55 लाख हेक्टेयर से अधिक फसलों को नुकसान हुआ है.
सरकार ने प्रभावित किसानों को मुआवजा देने के लिए 10,000 करोड़ रुपये के पैकेज का ऐलान किया.लेकिन इसके बाद तीन दिनों तक हुई लगातार बारिश ने नुकसान को कई गुना बढ़ा दिया है.अब क्या होगा ? एक गैर सरकारी अनुमान के मुताबिक़ मध्यप्रदेश में किसानों की सिर्फ सोयाबीन की फसल ही 70,000 करोड़ से ज्यादा की बर्बाद हुई है.लेकिन बीमा के चलते 1500-1600 करोड़ से ज्यादा नहीं मिलने वाले.
बेमौसम बारिश की यह तबाही इतनी हाहाकारी है कि इसके भयानकपने का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता था. तबाही के अनुमान की भी एक लिमिट होती है.इस मौसम में बाकी सालों में कोई 30 से 35 एमएल तक बारिश होती है लेकिन इस साल अब तक यह इस औसत से 500 फीसदी ज्यादा हो चुकी है,ऐसे में तबाही कितनी भयानक हो सकती है इसका अंदाजा लगाना नामुमकिन भले न हो लेकिन मुश्किल तो बहुत था.उत्तराखंड में नदियों में जिस किस्म का डरावना उफान आया है,उसे देख तबाही का अनुमान लगाने वाले वैज्ञानिक भी सहम गए हैं.इसका कारण कुदरतीभर नहीं है,इसमें इंसानी हाथ ज्यादा है.उत्तराखंड में नदियों के भराव क्षेत्र में जबदस्त अतिक्रमण हुआ है.विकास के नाम पर जिस तरह हरियाली पर कुल्हाड़ी चली है,उसकी भरपाई तो कुदरत को करनी ही थी. वैज्ञानिक सालों से कह रहे हैं कि उत्तराखंड का पारिस्थितिकीतंत्र पूरी तरह से चरमरा गया है.
लेकिन वैज्ञानिकों की बातें सरकारें ही नहीं उद्योग जगत और आम आदमी भी एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं.आखिर इस अनदेखी की कीमत किसी न किसी को तो चुकानी ही पड़ेगी.सिर्फ स्थानीय स्तर पर ही ऐसा नहीं हो रहा,भूमंडलीय स्तर पर भी यही सब हो रहा है.पूरी दुनिया के मौसम वैज्ञानिक पिछली सदी के 80 के दशक से आगाह कर रहे हैं कि धरती के पारिस्थकीतंत्र की हालत बहुत खस्ता है. ग्लोबल वार्मिंग हर गुजरते दिन के साथ बढ़ रही है.इसके बाद भी क्या किसी को कोई फर्क पड़ रहा है? दुनिया में पेड़ों के कटने की रफ़्तार पिछली सदी के नब्बे के दशक में पूरी सदी में सबसे ज्यादा थी.औसतन 15 अरब हरे पेड़ हर साल कट रहे हैं यह जानते हुए भी कि पेड़ धरती के फेफड़े हैं और फेफड़े बीमार हुए तो धरती का दम उखड़ जाएगा.बड़े बड़े सेमिनार हो रहे हैं हर कोई चाहे वह राजनेता हो या कोई कारपोरेट दिग्गज सब के सब अच्छे अच्छे भाषण दे रहे हैं,चेतावनी दे रहे हैं,चिंता व्यक्त कर रहे हैं.लेकिन कोई इनसे पूछे यह सब किसको जागरूक करने के लिए किया जा रहा है ?
अगर वही बात आपको नहीं माननी तो आपको क्यों लग रहा है कि दूसरे देश उसे लेकर संवेदनशील हो सकते हैं.वैज्ञानिक बार बार बता रहे हैं कि हिमालयी क्षेत्र में मौजूद बांध बादल निर्मित करते हैं और ये बादल वहीँ भयानक रूप से बरस जाते हैं.आखिर क्यों हिमालयन क्षेत्र में बांध बनने बंद नहीं होते ? ठीक है पर्यटन से उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था चलती है,लेकिन जब यह पता चल गया है कि पर्यटकों की रेलमपेल यहां के भौगोलिक और पारिस्थिकी को बिगाड़ रही है तो फिर क्यों नहीं पर्यटन में राशनिंग होती ? लगा दीजिये प्रतिबंध कि जो व्यक्ति एक बार उत्तराखंड जा चुका है,वह अगले 10 साल तक दुबारा नहीं जा सकता,साथ ही उत्तराखंड के पर्यटकों पर एक इकोलोजिकल सेस भी लगा दीजिये,जिससे यहां के लोगों की आय में कमी न हो.इस सबके साथ ही पर्यटन के क्षेत्र में किसी कंपनी या समूह को मोनोपली की इजाजत न दें आम लोगों को खाने कमाने दें.
[लेखक मीडिया एवं शोध संस्थान इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर में वरिष्ठ संपादक हैं ]