
किसी ने कोयले के वैकल्पिक इस्तेमाल
का कोई सुझाव नहीं दिया
§ संजय श्रीवास्तव
देशव्यापी संकट के पश्चात कोयला आपूर्ति की स्थिति सामान्य होने में समय लगेगा पर संकट से निकलने के संकेत मिलने लगे हैं। कोयले के कमी से तकरीबन डेढ दर्जन पावर प्लांट बंद होने और लगभग सौ की स्थिति नाजुक हो जाने से इस बारे में सोचा जाने लगा था कि अगर कोयला खत्म हो जायेगा तो देश के कल कारखानों का क्या हाल होगा? यह तो बाद की बात है पहले इसके चलते 60 फीसद घरों की बिजली गुल हो जायेगी फिर जन जीवन का क्या बनेगा। किसी ने यह नहीं सोचा कि कोयले का इस्तेमाल कम करना तो हम पर एक बंदिश और पर्यावरणीय सरोकार है, वैसे भी कोयला एक दिन खत्म होना है, यह अक्षय नहीं है। एक राजनेता का सुझाव था कि कोयले की खदानों का निजीकरण कर देना चाहिये तो किसी ने इसके दोषियों के लिये सजा की मांग कर डाली, विपक्ष ने कोल इंडिया और सरकार को कोयले को ले कर कोसा तो राजनीतिक कलह तेज होने लगी।
मगर किसी ने कोयले के वैकल्पिक इस्तेमाल का कोई सुझाव नहीं दिया।देश में पर्याप्त मात्रा में मौजूद कोयले की उत्पादन समस्या तो सुधर जायेगी पर उस समस्या का क्या होगा जिसकी तरफ संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटरेज ने ध्यान दिलाया है। गुटरेज ने कहा कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एशियाई देशों को 'कोयले की लत' छोड़नी होगी। नहीं तो इसके दुष्प्रभाव के चलते चीन, बांग्लादेश, भारत, वियतनाम, इंडोनेशिया और थाईलैंड में लगभग 24 करोड़ लोगों को बाढ़ की त्रासदी झेलनी होगी। कोयले की कालिमा पर्यावरणीय परिवेश पर पुत रही है,सबको पता है। अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों की चेतावनी पर कोयले का ज्यादा इस्तेमाल करने वाले देश अपनी विकास की विवशता के बावजूद अव्यावहारिक वादे कर रही हैं, यथा 2032 तक कोयले का इस्तेमाल चौथाई और 2040 से 50 तक आधा कर देंगे। इस बार के कोयला संकट ने संसार में दूसरे नंबर के कोयला उत्पादक और उपभोक्ता भारत को यह सीख दी है कि उसे अपने वादों इरादों में और मजबूती लानी होगी और कोयले के विकल्प के बारे में गंभीरता से सोचना होगा।
करीब 760 मिलियन टन सालाना उत्पादन और एक अरब टन का इस्तेमाल करने वाले अपने देश को दुनिया "कोयले का लती" कहती है। दुनिया में कुल 37% बिजली ही कोयले से बनती है जबकि हम 70 से 75% फीसदी बिजली कोयले से बनाते हैं। अमेरिका 73% बिजली हवा,सौर उर्जा के जरिए बनाता है, हम बमुश्किल 20 फीसदी। सरकारी आंकड़े के अनुसार हमारे पास 319 साल का कोयला है। मगर दुनिया का आकलन इसका तिहाई मात्र है, 120 साल बाद हमारे पास कोयला नहीं के बराबर बचेगा। वैसे भी वैज्ञानिक कहते हैं कि हर साल दुनिया में करीब 8.5 अरब टन कोयले की खपत के हिसाब से अगले 150 सालों के भीतर दुनिया भर का कोयला खत्म हो चुका होगा। हमारे पास फिलवक्त हमारी ऊर्जा महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने वाले कोयले का कोई सस्ता विकल्प नहीं है। हमें संसार के सामने यह स्वीकारना होगा कि हम ग्रीनहाउस गैसों के दुनिया के तीसरे सबसे बड़े उत्सर्जक हैं और हमने स्वीकारा है कि स्वच्छ ऊर्जा पूरी दुनिया में अनिवार्य है।
मौजूदा परिस्थिति एक चेतावनी की तरह है जो बताती हैं कि अब समय आ गया है हम कोयले पर अपनी निर्भरता कम करें और हरित तथा अक्षय ऊर्जा रणनीति पर दृढता और ईमानदारी से आगे बढ़ें ।कोयले के इस्तेमाल में कमी का रास्ता तात्कालिक नही बरसों लंबा है। अगले दशक भर में कोयले का प्रयोग आधा कर देंगे बड़बोलापन है। सरकार ने तय किया है कि 2022 तक देश 1,75,000 मेगा वॉट बिजली रिन्यूएबल एनर्जी से बनाएगी। यह कुल बिजली उत्पादन 3,84,115 मेगा वॉट का 45 प्रतिशत है। यह लक्ष्य फिलहाल असंभव है। हमें ऐसे अतिरेकी लक्ष्य चुनने की बजाय दीर्घकालिक समाधान के लिए कोयले और स्वच्छ ऊर्जा स्रोत के इस्तेमाल की मिलीजुली व्यावहारिक नीति पर चलना होगा। यह भी सोचना अतिरेक होगा कि हम सभी जरूरतों के लिये अचानक शत प्रतिशत स्वच्छ ऊर्जा, हरित ऊर्जा का उपयोग करने लगेंगे।
अचानक हम इस ओर मुड़ जायेंगे तो उन सवा दो करोड़ लोगों का क्या होगा जिनकी रोजी, रोजगार, कार्यव्यापार इसी पर आधारित है। रेलवे की 44 फीसद आय कोयले के ढुलाई से होती है। बरसों बाद की चरणबद्ध प्रक्रिया के बावजूद कोयले का प्रयोग शून्य होना संभव नहीं है, हमारी नीति यह होनी चाहिये कि हम अधिकतम ग्रीन एनर्जी का प्रयोग करें और कार्बन उत्सर्जन वाले कोयला या पेट्रोल डीजल जैसे विकल्पों का न्यूनतम इस्तेमाल करें। पर्यावरण लक्ष्यों के प्रति प्रतिबद्धता और दबाव के चलते हम अक्षय ऊर्जा स्रोतों का विकास की बात कर रहे हैं लेकिन जब तक इसकी लागत कोयले के बराबर या कम नहीं होगी कामयाबी मुमकिन नहीं। हाइड्रोजन एनर्जी, सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, एथेनॉल और बायो डीजल जैसे विकल्पों की ओर तभी जाना संभव होगा जब ये दाम और उपलब्धता की कसौटी पर खरे उतरेंगे।
विंड एनर्जी का भी यही हाल है इसके लिये उपयुक्त क्षेत्रों में इसे जितना बढावा मिलना चाहिये नहीं मिला क्योंकि इससे भारी मात्रा में विद्युत उत्पादन हेतु व्यावहारिक नहीं बनाया गया। रहा नाभिकीय ऊर्जा उतनी ग्रीन तो नहीं पर हमें उस तरफ भी देखना होगा। देश में केवल 1.7 फीसदी परमाणु बिजली का उत्पादन होता है। सच यही है कि भविष्य में जब बिजली से चलने वाली कारें आयेंगी और विकास के नए उद्यम स्थापित होंगे तो मांग और लागत को देखते हुए ऊर्जा उत्पादन के अन्य विकल्पों को आजमाने के बावजूद कोयले पर निर्भरता बनी रहेगी।सौर ऊर्जा निर्मित बिजली की लागत भले ही 2 रूपये प्रति यूनिट पड़े मगर इसके भंडारण और वितरण का खर्च इसे महंगा और अव्यावहारिक बनाये हुए है। वास्तविकता में 10 से 12 गीगावाट है पर सरकारी आंकड़ों में 20 गीगा वॉट सौर विद्युत का उत्पादन कर रहे हम चीन की 60 गीगावॉट की क्षमता से बहुत पीछे हैं।
इसे बढाना होगा। राष्ट्रीय हाइड्रोजन मिशन और सौ लाख करोड़ रुपये की ‘गतिशक्ति योजना’ की घोषणा के तहत देश हरित हाइड्रोजन उत्पादन और निर्यात का एक ग्लोबल हब बनेगा पर तभी जब इसके उत्पादन, भंडारण तथा वितरण की समस्याओं का हल निकाल पायेगा, जब इसकी लागत दो से कम होकर एक डालर प्रति किलोग्राम होगी। एक किलो हाइड्रोजन में एक लीटर डीजल से करीब तीन गुना अधिक ऊर्जा होती है यह औद्योगिक प्रसंस्करण, रसायनों के उत्पादन, लौह एवं इस्पात, खाद्य एवं सेमीकंडक्टर्स तथा शोधन संयंत्रों के क्षेत्र में इस्तेमाल के लिए बेहतरीन विकल्प होगी। पेरिस समझौते के तहत उत्सर्जन लक्ष्यों की पूर्ति में सहायक होगी पर यह सब महज घोषणाओं से क्या होगा।
देशवासी हर दिन डेढ लाख मीट्रिक टन सूखा कचरा पैदा करते हैं। इससे भी बिजली बन सकती है। पर इस कचरे का 70 फीसदी इकट्ठा नहीं होता। इकट्ठा कचरे का केवल 20 फीसद प्रसंस्कृत होता है और उसका भी 10 प्रतिशत काम आता है। बाकी कचरा जमीन में द्फ्न हो जमीन या जल को प्रदूषित करता है। हैदराबाद में सालिड लिक्विड वेस्ट मानव मल से बिजली और बचे से कम्पोस्ट खाद बन रही हैं। सबब यह कि वैकल्पिक ऊर्जा के छोटे संसाधनों का दोहन भी कोयले पर निर्भरता घटा सकता है। इस बार कोयले के संकट ने ऊर्जा विसंगतियों और कोयले पर अत्यधिक निर्भरता की ओर ध्यान दिलाया पर क्या सरकारें दूसरे तात्कालिक लाभ वाले मुद्दों से इतर इस दीर्घकालिक मसले पर ध्यान धरेंगी?