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तंजानियाई मूल के ब्रिटिश उपन्यासकार अब्दुर्रज्जाक गरनाह प्रदीप श्रीवास्तव
तंजानिया में जन्मे अब्दुर्रज्जाक गरनाह को इस साल साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया है. 72 साल के गरनाह ने अपने लेख में उस यात्रा का दर्द उड़ेला है जो वह बतौर एक शरणार्थी तमाम जिंदगी करते रहे हैं. उपन्यासकार अब्दुर्रज्जाक गरनाह 35 साल से लिख रहे हैं. लेकिन लिखना उन्होंने चुना नहीं था. यह कुछ ऐसा तो जो उनके साथ जिंदगी की तरह घटा. ठीक उसी तरह जैसे 1948 में अपना देश छोड़कर उन्हें ब्रिटेन में शरण लेनी पड़ी. ब्रिटेन में बसे गरनाह बताते हैं, "यह (लिखना) तो आखरी चीज थी, जो मैं अपने लिए सोचता.” 7 अक्टूबर को जब उन्हें बताया गया कि उन्हें इस साल का नोबेल पुरस्कार मिला है तो उन्होंने कहा, "मैं बहुत हैरान हूं और बेशक शुक्रगुजार भी.” गरनाह कहते हैं कि उन्हें इस पुरस्कार का मिलना उन विषयों को बहस के लिए ज्यादा मंच देता है, जो उनके उपन्यासों में उठाए गए हैं, मसलन शरणार्थियों का दर्द या साम्राज्यवाद. उन्होंने कहा, "मैं हमेशा इस बारे में सोचता रहता हूं कि ऐसा क्या था जो हमें यहां लेकर आया. वे कौन सी ताकतें और कौन से ऐतिहासिक पल थे, जो हमें यहां लेकर आए.” विषयों को मंच मिला उन्हें नोबेल मिला है, यह बात उन्हें अब तक जज्ब नहीं हुई है. वह कहते हैं, "अभी यह जज्ब हो रहा है कि अकादमी ने उन विषयों को उभारना चुना है जिनका मैंने जिक्र किया है. उनके बारे में बात करना जरूरी है.” वह कहते हैं कि जब वह ब्रिटेन पहुंचे थे तब शरणार्थी जैसे शब्दों के वैसे मायने नहीं थे, जैसे आज हो गए हैं. गरनाह बताते हैं, "अब ज्यादा बड़ी तादाद में लोग संघर्ष कर रहे हैं और आतंकवाद से भाग रहे हैं. 1960 के मुकाबले दुनिया अब कहीं ज्यादा हिंसक है तो उन देशों पर ज्यादा दबाव है जो ज्यादा सुरक्षित हैं. इन मामलों के साथ हमें बहुत दयालुता के साथ निपटना होगा.” नोबेल फाउंडेशन को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने यूरोप से आग्रह किया कि अफ्रीका के लोगों को इस तरह देखें कि वे आपको भी कुछ दे सकते हैं. अपने मूल देश तंजानिया के बारे में वह कहते हैं कि उनकी जड़ें आज भी वहीं हैं. उन्होंने बताया, "हां, मेरा परिवार जिंदा है, वहीं रहता है. जब भी हो सके, मैं वहां जाता हूं. मैं वहां से हूं, वहां से जुड़ा हूं. अपने जहन में आज भी मैं वहीं रहता हूं.” छोड़ने का दर्द गरनाह को जंजीबार तब छोड़ना पड़ा जब 1964 की क्रांति के बाद वहां के अल्पसंख्य अरब लोगों को प्रताड़ित किया जाने लगा. जब वह इंग्लैंड पहुंचे तब जीवन की दूसरी दहाई की शुरुआत कर रहे थे. तभी उन्होंने लिखना शुरू किया. 2004 में एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, "यह कुछ ऐसा था जिस पर मैं किसी योजनाबद्ध तरीके से नहीं गया था बल्कि यूं ही टकरा गया था. मोटे तौर पर यह उन भावनाओं का गुबार था जिन्हें मैं जी रहा था, वे भावनाएं जो अलग होने और अजीब माहौल में जीने से जुड़ी थीं.” लिखना शरू करने और छपने के बीच एक लंबा अरसा था जिसे गरनाह ने सिर्फ जिया. 1982 में उन्होंने केंट यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट की और उसके बाद 2017 में रिटायर होने तक बतौर अंग्रेजी प्राध्यापक वहीं काम भी किया. गरनाह का पहला उपन्यास ‘मेमरी ऑफ डिपार्चर' 1987 में छपा. उसके अगले साल ‘पिलग्रिम्स वे' आया और फिर 1990 में ‘डोटी'. तीनों में ही उन्होंने तत्कालीन ब्रिटेन में आप्रवासियों के अनुभवों की कहानी कही. जब पहचान मिली... गरनाह को ज्यादा पहचान उनके चौथे उपन्यास ‘पैराडाइज' से मिली जो 1994 में आया. इस उपन्यास में पहले विश्व युद्ध के दौरान साम्राज्यवाद तले पिसते पूर्वी अफ्रीका अद्भुत चित्रण था, जिसके लिए उन्हें बुकर प्राइज का नामांकन भी मिला. अकादमिक लूका प्रोनो कहते हैं कि गरनाह के काम पर पहचान और विस्थापन की छाया हावी रही है. ब्रिटिश काउंसिल कि वेबसाइट पर प्रोनो ने लिखा, "गरनाह का वर्णन आप्रवास के कारण होने वाली बिखरन के इर्द गिर्द फैला है.” 2005 में छपे उनके उपन्यास ‘डेजर्टेशन' को कॉमनवेल्थ राइटर्स प्राइज के लिए नामित किया गया था. 2011 में उनका उपन्यास ‘द लास्ट गिफ्ट' आया था जिसे पब्लिशर्स वीकली ने ‘पीछा ना छोड़नेवाला' बताया था. पिछले साल ही गरनाह का ताजा उपन्यास ‘आफ्टरलाइव्स' छपा जो एक ऐसे बच्चे की कहानी है जिसे जर्मनी की साम्राज्यवादी सेनाओं को बेचा गया.