तस्वीर इतनी एकरंगी मत करिये...!
प्रदीप श्रीवास्तव
किसी भी विमर्श का सबसे दयनीय पहलू यही होता है कि उसमें शामिल लोग सिर्फ श्यामश्वेत ढंग से सोचें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हालिया अमरीका यात्रा को लेकर यही हो रहा है। कुछ लोग इसे सिरे से एक असफल यात्रा करार दे रहे हैं तो कुछ इसे बेहद सफल बता रहे हैं। हकीकत यह है कि ये दोनो लोग गैरजरूरी और गैरजिम्मेदाराना हरकत कर रहे हैं। जो लोग प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा को सिरे से असफल बता रहे हैं, उनके तर्क बड़े ही हास्यास्पद और तरस खाने लायक हैं। मसलन- इनका कहना है कि प्रधानमंत्री मोदी को रिसीव करने अमरीकी कैबिनेट का कोई महत्वपूर्ण मंत्री नहीं आया यानी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने प्रधानमंत्री मोदी को कोई महत्व ही नहीं दिया।
इस सरलीकृत निष्कर्ष पर सिर्फ तरस ही खाया जा सकता है। शायद तुरत फुरत में यह श्यामश्वेत निष्कर्ष निकालने वालों को याद नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी की यह अमरीका यात्रा, नहीं संयुक्त राष्ट्र की यात्रा थी। इस यात्रा पर अकेले मोदी ही नहीं आये थे, दुनिया के 125 से ज्यादा देशों के शासनाध्यक्ष, राष्ट्राध्यक्ष या दूसरे महत्वपूर्ण सदस्य आये थे। क्या ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के प्रधानमंत्रियों या और चीन और जापान के प्रतिनिधयों को रिसीव करने जो बाइडेन मंत्रिमंडल से कोई आया था ? आखिर हम कब इस बात को समझेंगे कि राजकीय यात्राओं का अपना एक प्रोटोकोल होता है और जब किसी सभा या सम्मेलन में लोग भाग लेने आये होते हैं तो उनका महत्व दूसरा होता है। हमें यह बात भी नहीं भूलनी चाहिए कि संयुक्त राष्ट्र संघ होने के कारण अमरीका में हमेशा दुनियाभर के नेताओं का किसी न किसी वजह से जमघट लगा रहता है।
प्रधानमंत्री मोदी की कोविड-19 के चलते महीनों घरबंदी के बाद हुई इस यात्रा के जबर्दस्त दूरगामी महत्व हैं। प्रधानमंत्री मोदी से न सिर्फ अमरीका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस मिलीं,भारत आने का न्योता स्वीकार किया बल्कि राष्ट्रपति जो बाइडेन से मिलने के पहले प्रोटोकाल को पूरा किया। जरा इतिहास के पन्ने पलटकर देखिये कितने वैश्विक नेताओं से एक ही यात्रा के दौरान अमरीका का राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति मिलते हैं ? जी,हां! मिलते हैं लेकिन उन्हीं से जिन्हें महत्वपूर्ण समझा जाता है। इस यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी की जो बाइडेन के साथ उम्मीद से कहीं ज्यादा सकारात्मक बाॅडीलैंग्वेज के साथ मुलाकात हुई।
लेकिन हमें इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण प्रधानमंत्री की उस बैठक को मानना चाहिए, जिसमें उन्होंने टेक्नोलाॅजी के क्षेत्र की दुनिया की 5 दिग्गज कंपनियों के सीईओ से मुलाकात की। इनमें जनरल एटोमिक्स, जो कि सैन्य ड्रोन बनाने में इस समय दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण कंपनी है, के सीईओ विवेक लाल, एडोब जो कि आईटी और डिजिटल क्षेत्र की बहुत बड़ी और पाइनियर कंपनी है, के सीईओ शांतनु नारायणन, क्वालकाॅम साॅफ्टवेयर जो कि सेमीकंडक्टर बनाने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी है, के क्रिस्टियानों, एमोन, सोलर ऊर्जा क्षेत्र की बड़ी कंपनी, फस्ट सोलर के मार्क विडमार और वैकल्पिक निवेश प्रबंधन कंपनी ब्लैकस्टोन के सीईओ स्टीफन ए. स्वार्जमैन के साथ रही, जिसकी नोटिस इस यात्रा को असफल बताने वालों ने नहीं ली। जबकि इस मीटिंग का महत्व किसी भी मायने में कमला हैरिस के साथ की गई मीटिंग से कम नहीं है।
जो लोग प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा को किसी भी तरह के फल या नतीजे से रहित बता रहे हैं, वो लोग कूटनीतिक यात्राओं के बुनियादी मनोविज्ञान की ही अनदेखी कर रहे हैं। दुनिया की बड़ी से बड़ी कूटनीतिक बैठकें पहली बार में ही किसी निष्कर्ष या नतीजे पर नहीं पहुंच जातीं। दुनिया के चार बड़े नेताओं की क्वाड के बैनर तले मुलाकात इस मायने में यह छोटी बात नहीं है कि इन चारों देशों का आर्थिक और कारोबारी आकार आधी दुनिया के बराबर है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे पास बड़ा बाजार जरूर है, लेकिन हमारी अर्थव्यवस्था आज भी आधारभूत संरचना के मामले में अमरीका या जापान के सामने काफी कमजोर है। ऐसे में क्वाड जैसे संगठन का हिस्सेदार होना भी हमारी ताकत और हमारे भविष्य के विस्तार का संकेत है। जो लोग भारतीय प्रधानमंत्री की इस यात्रा को सिरे से असफल करार दे रहे हैं, उनके मुताबिक प्रधानमंत्री मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए न तो चीन का और न ही पाकिस्तान का नाम लिया। ठीक इसी तरह उन्होंने क्वाड की बैठक में भी अपनी बात रखते हुए चीन का नाम नहीं लिया। लेकिन इन लोगों को चीन और सोवियत संघ के जमाने की कूटनीतिक बैठकों को याद करना चाहिए।
आज भी तमाम विशेषज्ञ चीन की कूटनीतिक ताकत,उसके चुप रहने को मानते हैं। दरअसल दुनिया के बड़े मंच इशारों के लिए होते हैं,हंगामों के लिए नहीं। ये मंच पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान जैसों के लिए ही भड़ास निकालने की जगह हो सकते हैं, क्योंकि किसी भी विश्व मंच मंे पाकिस्तान को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं जाता। विश्व मंच द्विपक्षीय देशों वाले मंच नहीं होते। विश्व मंचों में तो आप सिर्फ अपने इरादों की एक झलक दे सकते हैं, यहां बस इतने कौंध की ही जरूरत होती है। किसी देश का नाम लेना द्विपक्षीय संदर्भों में ही सही होता है। प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रसंघ को संबोधित करते हुए पाकिस्तान और चीन का नाम न लेकर भारत के बड़े लक्ष्य और सपनों की तरफ इशारा किया है। प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रसंघ के अपने भाषण में आतंकवाद, कोरोना महामारी, वैश्विक अर्थव्यवस्था, अफगानिस्तान और यूएन को नये ग्लोबल आॅर्डर के मुताबिक नया आकार देने जैसे सारे महत्वपूर्ण वैश्विक मुद्दों को उठाया है।
लेकिन अगर सुब्रहमण्यम स्वामी को लगता है कि चीन का नाम लेकर प्रधानमंत्री मोदी ने झेंप दिखायी है, तो उन्हें इस बात को भी समझना चाहिए कि क्वाड की बैठक में किसी भी वैश्विक नेता ने चीन का नाम नहीं लिया ? क्या अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन भी झेप मिटा रहे थे? वैश्विक मंचों में व्यक्तियों या किसी देश विशेष का नाम लेने से आपकी ताकत या प्रतिष्ठा नहीं बनती, बल्कि उसी देश की ताकत निर्मित होती है, उसे मुफ्त में महत्व भी मिलता है। बात जब दुनिया के सबसे बड़े मंच की हो तो मानना चाहिए कि ऐसे में हमारे न चाहते हुए भी हमारे दुश्मन को सबसे ज्यादा महत्व मिलता। जब हम कोई चीज बार बार बोलने लगते हैं तो न तो हमारे बोले जाने की कोई संवेदना रहती है और न ही उस पर टिप्पणी करने वालों को कोई संकोच होता है।
अगर इमरान खान की तरह प्रधानमंत्री मोदी भी अपने भाषण में कश्मीर और पाकिस्तान की हरकतों का अलाप अलापते तो यह कोई हमारी समझदारीभरी विदेश नीति का नमूना नहीं होता बल्कि ऐसे फ्रस्टेशन का सबूत होता, जिससे हर किसी को कश्मीर पर अपनी राय व्यक्त करने का मौका मिलता। प्रधानमंत्री ने चीन और पाकिस्तान का अपने विभिन्न संबोधनों में नाम न लेकर एक मेच्योर और दूरगामी कूटनीतिक संदेश दिया है।
(लेखक विशिष्ट मीडिया एवं शोध संस्थान, इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर में वरिष्ठ संपादक हैं)