
राज्य के दावे और हकीकत
नौशाबा परवीन
हालांकि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश डी व्हाई चंद्रचूड़ के इस बयान की अधिक चर्चा हुई है कि सत्ता के समक्ष सच बोलना प्रत्येक नागरिक का न केवल अधिकार है, बल्कि उसका कर्तव्य भी है। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण उनकी यह बात है कि राज्य जिस प्रकार सत्य स्थापित करता है वह हमेशा झूठ रहित नहीं होता है। अगर पिछले कुछ वर्षों के ही घटनाक्रम पर सरसरी निगाह डाली जाये तो अधिकतर कल्याणकारी योजनाओं में राज्य के दावों और जमीनी वास्तविकता में काफी अंतर देखने को मिलेगा। इसके अतिरिक्त राजद्रोह, एनएसए, यूएपीए आदि कानूनों के तहत जब नागरिकों को लम्बे समय तक सलाखों के पीछे रखा जाता है तो राज्य के दावे उस समय बहुत खोखले नजर आते हैं, जब अदालत इन नागरिकों को निर्दोष पाती है।
संभवतः इसलिए ही सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दिन पहले इस बात पर चिंता व्यक्त की थी पुलिस (न्याय व कानून की बजाय) सत्तारूढ़ दल का पक्ष लेती है। बहरहाल, छठा मुख्य न्यायाधीश एमसी छागला स्मारक ऑनलाइन लेक्चर देते हुए न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने अनेक महत्वपूर्ण बातें कहीं, जिनसे यह अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट की सोच प्रक्रिया क्या है और इसका उसके फैसलों पर क्या प्रभाव संभावित है? इसलिए उनके लेक्चर की मुख्य बातों को संक्षेप में दोहराना आवश्यक है। न्यायाधीश चंद्रचूड़ के अनुसार सत्ता से सत्य बोलने के कर्तव्य का निर्वाह तभी संभव है, जब सार्वजनिक संस्थाओं को मजबूत किया जाये, जैसे प्रेस की स्वतंत्रता व चुनावों की सत्यनिष्ठा सुनिश्चित की जाये, राय व नजरिए की विविधता को न सिर्फ स्वीकार किया जाये बल्कि उसका जश्न मनाया जाये और समाज की मुख्य महत्वकांक्षा के तौरपर स्वयं को सत्य की तलाश के लिए समर्पित कर दिया जाये।
इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि सार्वजनिक संस्थाएं कमजोर हुई है। स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा है और वह जनप्रतिनिधियों के विरुद्ध सीबीआई व ईडी की सुस्त जांच से भी अप्रसन्न है। प्रेस, विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी सत्य सामने लाने की बजाय प्रचार व साम्प्रदायिक एजेंडा में लगा हुआ है, जोकि दुर्भाग्यपूर्ण है और लोकतंत्र के लिए हानिकारक भी। चुनाव भी जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार की बजाय गैर-जरूरी जाति व धार्मिक मुद्दों पर लड़े जा रहे हैं। जाहिर है इन सब बातों को लेकर न्यायाधीश चंद्रचूड़ भी चिंतित हैं। न्यायाधीश चंद्रचूड़ का मानना है कि सत्य स्थापित करने के लिए आप केवल राज्य पर भरोसा नहीं कर सकते; क्योंकि राज्य का सच हमेशा झूठ रहित नहीं होता है, और लोकतंत्र को बचाये रखने के लिए सत्य की शक्ति आवश्यक है।
उनके अनुसार, सत्य से ही लोकतंत्र में जन विश्वास जागृत होता है, जिससे ‘साझा जन यादें’ रची जाती हैं जोकि भविष्य के राष्ट्र की नींव रखती हैं। यही कारण है कि तानाशाहों से स्वतंत्रता पाने के तुरंत बाद या मानवाधिकार उल्लंघन अवधि से बाहर निकलने पर मुल्क सत्य आयोगों की स्थापना करते हैं। एक अलग संदर्भ में यह भूमिका अदालतें भी निभा सकती हैं, जैसे सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः ही कोविड-19 महामारी का संज्ञान लिया। बहरहाल, सोशल मीडिया के युग में सत्य तक पहुंच पाना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। कम से कम बुनियादी तथ्यों पर सहमति मुमकिन है, लेकिन अति प्रारंभिक तथ्य भी विवादित हो सकता है और अगर इतिहास पर दृष्टि डालते हुए राय के आधार पर सत्य स्थापित किया जाये तो यह जरूरी नहीं कि एक की राय नैतिक तौरपर दूसरे के लिए उचित हो। मसलन, समलैंगिकता व गर्भपात पर दुनियाभर में राय परस्पर विरोधी हैं।
न्यायाधीश चंद्रचूड़ के अनुसार भारत में सत्य स्थापित करने में सत्ता भी एक पहलू है। चूंकि महिलाएं, दलित व हाशिये पर पड़े अन्य समुदाय परम्परागत दृष्टि से सत्ता का हिस्सा नहीं रहे, इसलिए उनकी राय को ‘सत्य’ की हैसियत प्रदान नहीं की गई। ब्रिटिश राज में राजा या रानी की राय ही सत्य थी, लेकिन उसके बाद सवर्ण जाति के पुरुषों की आस्था व राय ‘सत्य’ हो गई। पितृसत्तात्मकता व जाति के कमजोर पड़ने और सामाजिक प्रगति के कारण अब धीरे धीरे महिलाओं, दलितों व अन्य कमजोर वर्गों की राय को भी भारत में ‘सत्य’ का दर्जा मिलता जा रहा है। दरअसल, लोकतंत्र में सत्य तीन माध्यमों से स्थापित होता है- राज्य के द्वारा, विशेषज्ञों जैसे वैज्ञानिकों के द्वारा और नागरिकों की विवेचना द्वारा। हालांकि की राज्य की नीतियों के बारे में यह अनुमान लगाया जाता है कि वह समाज के सत्य पर आधारित हैं, लेकिन न्यायाधीश चंद्रचूड़ के अनुसार, इसका अर्थ यह नहीं है कि लोकतंत्र में भी राज्य राजनीतिक कारणों से झूठ नहीं बोलेगा।
पेंटागन पेपर्स ने वियतनाम युद्ध पर अमेरिका के झूठ का पर्दाफाश किया और हाल ही में कोविड मौतों को लेकर भी कुछ देश झूठ बोल रहे हैं। विशेषज्ञों के दावे भी विचारधारा पक्षपात, आर्थिक लालच या व्यक्तिगत दुर्भावना से प्रभावित हो सकते हैं। विशेषज्ञ अक्सर उन थिंक-टैंक से जुड़े होते हैं जो विशिष्ट राय के समर्थन में शोध करते हैं, इसलिए यह संभवना बनी रहती है कि वह अपनी पसंद के तथ्यों का चयन कर लें, सहमति निर्मित करने के लिए। यही वजह है कि न्यायाधीश चंद्रचूड़ चाहते हैं कि जिम्मेदार नागरिक गहन छानबीन व प्रश्नों के जरिये ‘सत्य उपलब्ध’ कराने वाले बनें। वह कहते हैं, “जो लोग सत्य का दावा कर रहे हैं उनके लिए आवश्यक है कि वह पारदर्शी व सुस्पष्ट हों।”
लोकतंत्र का मूल यह है कि जन नीति के निर्णयों में नागरिकों की हिस्सेदारी हो, भले ही उनके साधन जो हों। इसका अर्थ यह है कि ऐसा करने के लिए उनके पास पर्याप्त जानकारी होनी चाहिए। इस दृष्टि से देखा जाये तो न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने सत्य व लोकतंत्र के बीच संबंध पर अपने भाषण में यह तो बता दिया है कि नागरिकों को क्या करना चाहिए, लेकिन यह बात अब भी शेष रह जाती है कि नागरिकों को कितना करने दिया जायेगा। यह सही है कि लोकतंत्र का स्वास्थ्य इस पर निर्भर करता है कि सरकारें अपने मामलों को लेकर कितनी सच्ची हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि सरकारें सच छुपाती हैं और नागरिक अक्सर उनसे सच उगलवा नहीं पाते। भारत ने पेगासस खरीदा था या नहीं? इस सवाल का जवाब भी ‘हां’ या ‘न’ में सामने नहीं आ सका। ऑक्सीजन की कमी से लोग मरे, सबके सामने मरे, लेकिन सरकार ने संसद में कहा कि राज्यों ने उसे नहीं बताया कि ऑक्सीजन की कमी से कोई मरा है।
सत्यमेव जयते हमारे राष्ट्रीय चिन्ह का अटूट हिस्सा है। न्यायाधीश चंद्रचूड़ का भाषण राजनीतिक वर्ग व नागरिकों को इसी आदर्श को अपनाने का एहसास दिलाता है। इस आदर्श को राष्ट्र के जीवन में स्थापित करने का एकमात्र तरीका यही है कि हमारे समाज में जो अनेकता में एकता है, उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ फलने-फूलने दिया जाये, जिसमें रंग-बिरंगे फूल हों, वही गुलदस्ता सुंदर होता है। लोकतंत्र सबसे अच्छे नतीजे उस समय बरामद करता है जब वह विविध रायों के लिए मंच स्थापित करता है। हर प्रकार की राय आने के बाद ही सही राय निकलती है। इस लिहाज से न्यायाधीश चंद्रचूड़ का भाषण सामयिक है, जिससे सबक लेने की आवश्यकता है।