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दरकार एक संवेदनशील समाज बनाने की है
वीना सुखीजा साल 2020 में बच्चों के खिलाफ अपराध के 1.28 लाख मामले दर्ज किए गए,जिनसे 1.34 लाख बच्चे उत्पीडित हुए। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा 14 सितंबर 2021 को जारी ‘क्राइम इन इंडिया 2020’रिपोर्ट के मुताबिक हालांकि आपराधिक घटनाओं की संख्या 2019 में घटे 1.48 लाख अपराधों के मुकाबले 13.5 फीसदी की गिरावट दर्शाते हैं,लेकिन ये इस मामले में चिंताजनक हैं कि 2020 में ज्यादातर समय लॉकडाउन रहने के बाद भी बच्चों के विरुद्द अपराधों में कोई कमी नहीं आयी। हैरानी की बात यह भी है कि जघन्य अपराधों के सबसे ज्यादा शिकार बच्चे ही हुए। साल 2020 में बच्चों के विरुद्ध अपराध में सबसे ज्यादा मामले अपहरण के रहे जिनकी संख्या कुल अपराधों की 42.6 फीसदी रही । पिछले कई सालों की तरह इस साल भी बाल अपराध के मामलों में मध्यप्रदेश सबसे आगे रहा। एमपी में साल 2020 में 8751 बच्चे लापता हुए जिनमें 7230 लड़कियां हैं। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान, प्रदेश में बच्चों के मामा के रूप में जाने जाते हैं। लेकिन मामा के पिछले डेढ़ दशकों के राज में उसके भांजे लगातार असुरक्षित हैं। अपहरण के बाद मध्यप्रदेश में बच्चों के साथ होने वाला दूसरा खौफनाक अपराध है- बलात्कार। साल 2020 में यहां बच्चों के विरुद्ध हुए कुल अपराधों में बलात्कार के अपराध 38.8 फीसदी रहे। जबकि साल 2019 पॉक्सो के मामले 35.5 फीसदी थे। लेकिन बात अकेले मध्यप्रदेश की नहीं है,बच्चों के विरुद्ध पूरे देश में हो रहे अपराध हैरान करने वाले हैं। संचार और सम्प्रेषण के इस जबर्दस्त दौर में जबकि पीड़ितों की करुण कहानियां सबको पता हैं फिर भी अपराधी इतने भावहीन जानवर क्यों बने हुए हैं। यहां तक कि पेशेवर प्रशिक्षण के बावजूद बच्चों पर हुए अत्याचार की घटनाओं को देखकर मनोविद तक विचलित हो जाते हैं,लेकिन बच्चों के विरुद्ध हिंसा करने वालों को जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ता। बच्चों के साथ बलात्कार के मामले में सामान्य बलात्कार के मामले नहीं होते,उनके साथ बलात्कारियों द्वारा क्रूर हिंसा भी की जाती है । सवाल है आखिर ऐसा क्यों होता है ? पीड़ित बच्चों के बीच काम करने वालों के मुताबिक इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि अपराधी जानते हैं कि बच्चे अक्सर अपने ऊपर हुए इस अत्याचार को व्यक्त नहीं कर पाते हैं। बच्चों के विरुद्ध ज्यादातर अपराधी सामान्य और अधिकतर परिचित होते हैं। इनके अपराध का कोई निश्चित पैटर्न नहीं होता। लेकिन ये बेहद क्रूर,जुगुप्स और शातिर होते हैं। अक्सर ये अपने कुकृत्यों के लिए दूसरों को दोषी ठहराते हैं। इस सन्दर्भ में सबसे खतरनाक बात यह होती है कि ज्यादातर अपराधी कभी पकड़े नहीं जाते हैं। इसलिए इनमें से कई बार-बार अपराध करते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले 10 वर्षों में बच्चों के खिलाफ रेप और यौन शोषण मेंकरीब 350 फीसदी की वृद्धि हुई है। करीब 35 फीसदी सालाना की वृद्धि। वास्तव में बच्चों के विरुद्ध अपराधों में यह वृद्धि समाज में बढ़ती आपराधिक प्रवृत्ति को दर्शाती है। समाज में विशेषकर घरेलू हिंसा में लगातार इजाफा हो रहा है। मनोविद कहते हैं कि जो लोग घर में लगातार होती हिंसा को देखकर बड़े होते हैं, वे समाज में अन्य लोगों के अधिकारों या भावनाओं के प्रति उदासीन हो जाते हैं, हिंसा और क्रोध उनके दिमाग में स्थाई जगह बना लेते हैं,जिनकी अंततः परिणति क्रूर अपराधों में होती है। क्या एक जघन्य अपराध कई दूसरे अपराधियों को भी वैसा ही अपराध करने को उकसाता है, खासकर उन्हें जो पहले से ही परेशान और बीमार हैं? जी हां ऐसा होता है। अपराधी दूसरे अपराधियों से बहुत जल्दी प्रेरित होते हैं और उनसे बड़ी क्रूरता कर दिखाना चाहते हैं । हम ऐसे तमाम वीभत्स आपराधिक मामलों के बाद उनकी नकल का सिलसिला देख चुके हैं। कठुआ त्रासदी के तुरंत बाद,बलात्कार के ऐसे ही मामलों की बाढ़ आ गयी थी,उसके पहले निर्भया मामले के बाद भी ऐसा ही हुआ था। शायद इन दुस्साहसों के पीछे सबसे बड़ा कारण यही है कि अपराधियों को लगता है उन्हें सजा जब तक मिलेगी तब तक वो अपनी जिंदगी जी चुके होंगे। वास्तव में ऐसे मामलों में न्याय में देरी नहीं होनी चाहिए। क्योंकि अपराधियों को डर और निश्चित रूपसे से दी जाने वाली गंभीर सजा के साथ साथ जल्द से जल्द दी गयी सजा ही अपराधियों को हतोत्साहित करते हैं। समाज का संवेदनशील होना सामूहिक सृजनशीलता में निहित है जो कि शिक्षा,नैतिकता और ईमानदारी से आती है। हमारे यहां बच्चों के साथ अपराध की ऐसी तस्वीर सामने आने पर एक आपात बैठक बुलाई जाती है। आनन फानन में कुछ उपायों की घोषणा की जाती है और फिर कुछ दिन गुजरने के बाद उसी पुराने ढर्रे में हर कोई आ जाता है। इसलिए अपराधियों द्वारा इन उपायों को तवज्जो ही नही दी जाती। बच्चों से अपराधों के मामले में हम एक बर्बर और आदिम युगीन समाज में ही जीते हुए लगते हैं। एनसीआरबी की रिपोर्ट हर साल सामने आती है और हर साल ही उसमें शर्म करने लायक आंकड़े आते हैं। लेकिन हम सारा हंगामा रिपोर्ट आने वाले हफ्ते भरमें करते हैं,एक हफ्ता होते ही सब भुला देते हैं। वास्तव में बच्चों को समाज की क्रूरता से बचाना है, तो समाज को पहले जीने और रहने के लायक एक संवेदनशील समाज बनाना होगा। बच्चे आसमान से नहीं टपकते वे इसी समाज का हिस्सा होते हैं। इसलिए बच्चों को हिंसा के जबड़ों से बचाना है तो दलितों,आदिवासियों और वंचित तबको को भी अत्याचारों से बचाना होगा। वास्तव में हम इस सच से आंखें नहीं मिलाते जबकि सच्चाई यह है कि हमारा समाज हिंसा के बहुस्तरीय चक्रव्यूह में फंसा हुआ है। ऐसा समाज अपने बच्चों के प्रति भला कैसे संवेदनशील हो सकता है? (लेखिका विशिष्ट मीडिया एवं शोध संस्थान, इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर में कार्यकारी संपादक हैं)