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पंजाब: जड़ें जमाने से लेकर बचाने तक
कैप्टन खविंद्र सिंह अगले साल जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें पंजाब भी है। वहां की राजनीतिक सरगर्मी शुरु हो चुकी है। राजग से नए तीन किसान बिल के विरोध में अलग होने वाला शिरोमणी अकाली दल ने लंबे समय बाद बसपा के साथ गठबंधन किया है। सीटें भी बांट ली है। विधानसभा की कुल 117 सीटों में से बसपा के लिए 20 सीटें छोड़ी है। इसका चुनाव में होने वाले असर का संबंध दलित राजनीति से कहीं अधिक 33 फीसदी के करीब दलित वोट बैंक पर है। हालांकि वह सभी दलों के बीच बंटा हुआ है, फिर भी अकाली दल को लगता है कि बसपा के साथ आ जाने से उसके जनाधार का लाभ मिल सकता है। अकाली—बसपा गठबंधन को भाजपा और पिछले चुनव में नया—नया जनाधार हासिल करने वाली आम आदमी पार्टी के बजाय कांग्रेस के वोट बैंक में संध लगानी होगी। 2017 के विधान सभा चुनाव में 117 में से 77 सीटें हासिल करने वाली कंग्रेस का वोट प्रतिशत 38.5 है, जबकि तीन सीटें जीतने वाली भाजपा को महज 5.4 प्रतिशत ही वोट मिल पाए थे। हां, शिरोमणी अकाली दल को 25.2 प्रतिशत वोट और 15 सीटों पर जीत अवश्य मिली थी। आम आदमी पार्टी ने 23.74 प्रतिशत वोट पाकर न केवल अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई थी, बल्कि 20 सीटें भी जीत ली थी। बसपा का वोट प्रतिशत तो 2012 विधान सभा चुनाव में मिले 4.29 प्रतिशत से घटकर 1.5 प्रतिशत हो गया। इन तथ्यों के आधार पर पंजाब विधानसभा के लिए सत्ताधारी कांग्रेस को छोड़कर सभी दल अपनी जमीन तलाशने में जुट गए हैं। इसी के साथ यह सवाल भी राजनीतिक विश्लेषकों और राजनेताओं के मन को कुरेदने लगा है कि पंजाब विधानसभा चुनाव में शिरोमणी अकाली दल और बसपा गठजोड़ क्या पंजाब में रंग जमा पाएगा? यह भी सवाल उठता है कि बीजेपी से अलग होने के बाद शिरोमणि अकाली दल और बसपा का गठबंधन पंजाब की राजनीति के लिए क्या मायने रखता है? वैसे इस गठबंधन को पंजाब में आगामी विधानसभा से पहले बड़े राजनीति बदलाव के नजरिए से देखा जा रहा है। इस बदलाव में लिखे जाने तक भाजपा अलग—थलग पड़ती मालूम दे रही है। वह अकेल मैदन में उतरने की तैयारी में है, लेकिन डर है किसान बिल विरोधी उनकी इस मंशा में आंच न लगा दें। उल्लेखनीय है कि इस नए तीन किसान कानून के सर्वाधिक विरोधी पंजाब के किसान ही हैं। वे केंद्र सरकार के विरोध में पिछले छह माह से दिल्ली के बोर्डर पर डटे हुए हैं। केंद्र सरकार का विरोध का सीध मतलब बीजेपी के विरोध से है। अगर बसपा के पंजाब में जनाधार की बात की जाए तो तीन दशक पहले का एक दौर था, जबक बसपा ने 1992 में अकाली दल के विरोध के बावजूद अपने दम पर नौ विधानसभा सीटें जीत ली थी। अकाली दल का विरोध भी झेलना पड़ा। लेकिन उसके बाद धीरे—धीरे पंजाब की राजनीति से बसपा का सफ़ाया हो गया। फिलहाल बसपा पंजाब में कोई सीट नहीं जीत है। हालांकि दोआबा में बसपा का कुछ जनाधार है, जहां से गठबंधन को कुछ सीटों मिल सकती हैं। यह कहें कि इस गठबंधन की नजर पंजाब में 33 फ़ीसदी दलित की आबादी पर है, जो भारत में सबसे ज़्यादा है। इनमें बड़ी संख्या वाले समर्थकों को डेरा समुदाय वाले संगठनों ने अपने—अपने तरीके प्रभावित कर रखा है। धर्म गुरुओं के आगे नतमस्तक होने वालों में ज्यादातर दलित समुदाय के लोग ही हैं, जो उनके हर इशारे की भाषा समझते हैं। यह कारण है कि पश्चिम भारत में विशेषकर पंजाब डेरा पॉलटिक्स के लिए जाना जाता है। चुनाव आते ही राजनेता विभिन्न समुदायों डेरा की ओर रूख करते हैं और उसके ईश्वर के दूते बने प्रमुख या धर्मगुरुओं को साधने की कोशिश करते हैं। ये डेरे उदार सांस्कृतिक परंपरा की उपज हैं। ऐतिहासिक रूप से, उनका विकास सिख धर्म के विकास के साथ जुड़ा हुआ है। सिख धर्म के एकीकरण के जवाब में विकसित हुए प्रमुख डेरों में नानकपंथी, सेवापंथी, निर्मला, उदासी आदि के अतिरिक्त रविदासिया समुदाय, आदि—धर्मी समुदाय और वाल्मीकि समुदाय मुख्य हैं। ये धार्मिक, जाति और वर्ग विभाजन और जीवित गुरु के प्रति श्रद्धा से परे अनुयायियों की मंडली हैं। बहरहाल, पंजाब में कांग्रेस का बना अपना मजबूत जनाधार है। उसमें दलितों जमात के साथ—साथ सिख समुदाय की तादात भी स्थायी तौर पर बनी हुई है। उनका टकराव आम आदमी पार्टी से है, न कि अकाली या बसपा से। अकाली दल के ग्रामीण मतदाता हैं, जो कांग्रेस की पकड़ ग्रामीण और शहरी दोनों पर है। दलित वोट बैंक का भी बड़ा हिस्सा उसके साथ है। कारण दलितों का वोट सभी राजनीतिक दलों के पास है और इस बार भी किसी एक पार्टी के पक्ष में जाने की इसकी संभावना नहीं दिखती है। हालांकि गुटबाजी और सत्ता विरोधी लहर कांग्रेस का कमजोर पक्ष है। वह किस तरह और किस हद तक इस स्थिति को नियंत्रित करती है यही उसके लिए महत्वपूर्ण है। बीजेपी की स्थिति भी मजबूत नहीं है। वैसे इस ताजा गठबंधन के मद्देनजर बीजेपी नए समीकरण बनाने और कुछ अन्य छोटे दलों को साधने की संभावनाएं टटोलने में लगी हुई है। — लेखक विचारक और समजसेवी हैं