
चंदे से चकाचक भाजपा, टाटा सबसे बड़ा डोनर
वर्ष 2019-20 में सबसे अधिक चंदा भाजपा को मिला, जो कांग्रेस के मिले चंदे से पांच गुना अधिक था एक नजर में जानिए बड़ी राजनीतिक पार्टियों को कितना मिला चंदा?
समाचार एजेंसी पीटीआई द्वारा प्राप्त ताजा जानकारी के अनुसार भाजपा को 2019-20 में सबसे ज्यादा 785 करोड़ रुपये का चंदा मिला। इस दौरान कांग्रेस को 139 करोड़ रुपये का चंदा मिल पाया। इस तरह से भाजपा को कांग्रेस के मुकाबले पांच गुना से भी ज्यादा चंदा मिला है। केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा को वित्त वर्ष 2019-20 के दौरान व्यक्तिगत और कंपनियों की तरफ से दान और इलेक्टोरल ट्रस्ट से कुल 785 करोड़ रुपये का चंदा मिला। भाजपा की तरफ से निर्वाचन आयोग के सामने चंदे को लेकर फरवरी में जमा नवीनतम रिपोर्ट को आयोग ने इस हफ्ते सार्वजनिक किया। जानकारी के मुताबिक भाजपा के चंदे में सबसे अधिक योगदान इलेक्टोरल ट्रस्ट, उद्योगों और पार्टी के अपने नेताओं ने किया।
भाजपा को सबसे अधिक चंदा देने वाले नेताओं में पीयूष गोयल, पेमा खांडू, किरण खेर और रमन सिंह शामिल हैं। इनके अलावा आइटीसी, कल्याण ज्वैलर्स, रेयर इंटरप्राइजेज, अंबुजा सीमेंट, लोढा डेवलपर्स और मोतीलाल ओसवाल कुछ प्रमुख उद्योग समूह हैं जिन्होंने भाजपा को चंदा दिया। न्यू डेमोक्रेटिक इलेक्टोरल ट्रस्ट, प्रूडेंट इलेक्टोरल ट्रस्ट, जनकल्याण इलेक्टोरल ट्रस्ट, ट्रायंफ इलेक्टोरल ट्रस्ट ने भी भाजपा के फंड में योगदान दिया।
कांग्रेस की तरफ से चंदे की मुहैया कराई गई जानकारी के मुताबिक उसे कुल 139 करोड़ का चंदा मिला। वहीं तृणमूल कांग्रेस को आठ करोड़ रुपये, सीपीआइ को 1.3 करोड़ रुपये और सीपीएम को 19.7 करोड़ रुपये का चंदा मिला। इस रिपोर्ट में 20 हजार से अधिक राशि देने वालों की ही जानकारी है। कोविड महामारी के चलते निर्वाचन आयोग ने वर्ष 2019-20 के लिए वाíषक आडिट रिपोर्ट जमा कराने की अंतिम तरीख बढ़ाकर 30 जून कर दी है।
बहरहाल, पिछले सात सालों में कॉर्पोरेट्स से सबसे ज्यादा चंदा बीजेपी को मिला है। बाकी पार्टियों को मिले कॉर्पोरेट डोनेशन को मिला दें तो भी बीजेपी को मिला चंदा उससे 7 गुना ज्यादा है। यानी कि राजनीतिक चंदा पाने में भारतीय जनता पार्टी (BJP) से आगे कोई दूसरी पार्टी नहीं है। साल 2018-19 में बीजेपी को 698 करोड़ रुपये का चंदा मिला, जबकि कांग्रेस को केवल 122.5 करोड़ रुपये मिल सके। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की रिपोर्ट के मुताबिक 2018-19 के दौरान राजनीतिक दलों को चंदा देने में टाटा गुप का प्रोग्रेसिव इलेक्टोरल ट्रस्ट सबसे आगे रहा। कॉर्पोरेट्स से राजनीतिक दलों को मिलने वाला चंदा बढ़ता ही जा रहा है। 2004-12 के बीच कॉर्पोरेट्स से पार्टियों को जितना चंदा मिला, साल 2018-19 में उसमें 131% की बढ़त देखने को मिली है। आइए जानते हैं राजनीतिक चंदे से जुड़े कुछ दिलचस्प आंकड़े बताते हैं क टाटा के प्रोग्रेसिव ट्रस्ट ने 2018-19 के दौरान कुल 455.15 करोड़ रुपये का चंदा पॉलिटिकल पार्टीज को दिया। कॉर्पोरेट डोनर्स की लिस्ट में वह टॉप पर है।
2012-13 से 2018-19 के बीच बीजेपी को कॉर्पोरेट्स से सबसे ज्यादा चंदा मिला। इस दौरान कुल कॉर्पोरेट डोनेशन का 82% से ज्यादा पार्टी को मिला। बीजेपी को मिले चंदे में सिर्फ 44 करोड़ ही अन्य स्त्रोतों से आए हैं। 2018-19 में बाकी राष्ट्रीय पार्टियों (कांग्रेस, एनसीपी, तृणूमल कांग्रेस और सीपीएम) को जितना चंदा मिला, उसे जोड़ लें। अब इस रकम के 7 गुने से भी ज्यादा चंदा अकेले बीजेपी को मिला है।
पॉलिटिकल पार्टीज को 20,000 रुपये से ज्यादा के चंदे की जानकारी चुनाव आयोग को देनी होती है। इसमें दानकर्ता का नाम, पता, PAN, पेमेंट टाइम और रकम का ब्योरा देना पड़ता है। ADR का कहना है कि 274 कॉर्पोरेट डोनर्स से राजनीतिक पार्टियों ने 13.364 करोड़ रुपये बिना PAN और पता हासिल किए ही ले लिए।
आठ सौ, नौ सौ और हजार करोड़ रुपये। इतनी धनराशि सुनते ही किसी संगठित कारपोरेट घराने की बैलेंसशीट का बरबस ही ख्याल आ जाता है, लेकिन यह हमारे राजनीतिक पार्टियों की चंद वर्षों में चंदे से प्राप्त कमाई है। चुनाव सुधारों के लिए प्रयासरत संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफाम्र्स और इलेक्शन वॉच इस पर नजर रखती रही है।
कितना सही चंदा बनाम धंधा
यह सही है कि आज के समय में राजनीतिक पार्टियों को अपने संचालन के लिए काफी धन की आवश्यकता होती है। इसकी व्यवस्था के लिए वे अन्य तरीकों के अलावा चंदे जैसे मुख्य स्रोत का सहारा लेते हैं। इन राजनीतिक दलों की कुल आय में कूपन बेचकर जुटाए गए धन की बड़ी हिस्सेदारी होती है। यह चंदा एकत्र करने का ऐसा तरीका है जिसका राजनीतिक दलों को कोई विवरण नहीं देना होता है। मौजूदा जनप्रतिनिधित्व कानून के आसान प्रावधानों का वे फायदा उठाते हैं। इस स्थिति में इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि अज्ञात स्नोतों से इस मद में मिलने वाली भारी-भरकम राशि में कहीं काले धन की हिस्सेदारी न हो।
यह फंदा भी
राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता का अभाव किसी भी लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता है। इसलिए जब तक राजनीतिक पार्टियों के लिए सुविधाजनक जनप्रतिनिधित्व कानून के प्रावधानों को दुरुस्त नहीं किया जाएगा, तब तक इन पर फंदा नहीं कसा जा सकेगा। कानून में ऐसे प्रावधान किए जाने चाहिए कि राजनीतिक दलों को चंदे के रूप में मिलने वाली हर छोटी-बड़ी रकम का विवरण देने पर विवश होना पड़े। किसी स्वस्थ लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के आय-व्यय सहित पूरी पारदर्शी कार्यप्रणाली की जरूरत आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा बन चुकी है।
चंदे की चकाचौंध
मौजूदा राजनीतिक दलों की आय में कूपनों की बिक्री से प्राप्त चंदे की बड़ी हिस्सेदारी है। इस मद में जो पैसा पार्टियों के पास आ रहा है उसका कोई हिसाब-किताब नहीं है। जनवरी, 1990 में औपचारिक तौर से राजनीतिक दलों के वित्तीय विवरण का मुद्दा तब उठा जब इस संबंध में दिनेश गोस्वामी के नेतृत्व में एक कमेटी का गठन हुआ। इसकी रिपोर्ट में कहा गया, ‘चुनावी सुधारों की मांग विशेष रूप से 1967 के बाद से जोर पकड़ती जा रही है’ (पैरा 1.8)। इस प्रकार चुनावी प्रक्रिया का अहम हिस्सा यानी दलों के वित्तीय विवरण का मुद्दा पिछले पांच दशकों से उठता रहा है।
इतना पुराना मुद्दा होने के बावजूद राजनीतिक दलों के वित्तीय विवरण को देश के प्रमुख रहस्यों में से एक बनाए रखा गया है। इनको हासिल करने के लिए भी मशक्कत करनी पड़ी। 28 फरवरी, 2007 को एडीआर ने आरटीआइ आवेदन के जरिए 20 प्रमुख राजनीतिक दलों के आयकर रिटर्न का ब्योरा मांगा था। इस संबंध में प्रथम अपीलीय अधिकारी के पास की गई 19 अपीलों को खारिज कर दिया गया। 31 जुलाई, 2007 को केंद्रीय सूचना आयोग (सीआइसी) के पास दूसरी अपील की गई। दो बार सुनवाई के बाद सीआइसी ने 29 अप्रैल, 2008 को आदेश दिया कि आयकर रिटर्न की कॉपी एडीआर को सौंपी जाए।
इतनी मशक्कत के बाद प्राप्त जानकारी का विश्लेषण करने पर पाया गया कि कोई भी दल आयकर नहीं देता है क्योंकि सभी पार्टियां आयकर एक्ट की धारा 13ए के अंतर्गत 100 प्रतिशत आयकर से छूट का दावा करती हैं। यद्यपि यह धारा यह भी कहती है कि राजनीतिक दलों को 20 हजार रुपये से अधिक प्राप्त होने वाले चंदे का ब्योरा जनप्रतिनिधित्व कानून (आरपी) की धारा 29सी के तहत निर्वाचन आयोग को देना होगा। धारा 29सी की उपधारा (4) में यह व्यवस्था की गई है कि जो भी पार्टी प्राप्त होने वाले चंदे का ब्योरा उपलब्ध नहीं कराती उसको ‘किसी भी प्रकार के टैक्स में रियायत नहीं दी जाएगी।’
विदेशी कंपनियों से चंदा : फॉरेन कंट्रीब्यूशन (रेगुलेशन) एक्ट, 1976 (एफसीआरए) की धारा 3 एवं 4 राजनीतिक दलों को विदेशी कंपनियों या भारत में मौजूद विदेशी कंपनियों से किसी भी प्रकार की सहायता राशि लेने पर प्रतिबंध लगाती है। इस मसले पर यह कयास लगाए जा रहे हैं कि कई विदेशी कंपनियों ने देश में ट्रस्ट रजिस्टर करवा लिए हैं और इन्हीं के माध्यम से राजनीतिक दलों को पैसे दे रही हैं। पब्लिक एवं पोलिटिकल अवेरनेस ट्रस्ट के बारे में माना जा रहा है कि इसमें ब्रिटेन स्थित वेदांता ग्रुप का पैसा लगा है। इसी ग्रुप की कई अन्य कंपनियां भारत में रजिस्टर्ड हैं और ये भी राजनीतिक दलों को चंदे दे रही हैं। यह एक ऐसी स्थिति है जिसका सीधा असर राष्ट्रीय सुरक्षा पर पड़ सकता है।
प्रस्तुति: मैगबुक, फोटो साभार बिजनेस स्टैेंडर्ड, स्रोत एजेंसी और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की रिपोर्ट