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पुष्पांजलि
MRP ₹05

इस अंक में नववर्ष 2023 को स्वागत करती रचनाएं... बाईस बीता तेईस आया। एक नयी उम्मीद, कुछ नया रचने का जज़्बा। हां, जड़ें और तना तो नहीं बदलने पर पत्ते—फूल—फल भी सर्वथा नये। संस्कृति का अंतर्भाव बना रहता है, सभ्यता का रूप बदल जाता है। कभी पिता के पैर छूते थेख् अब गले लगा लेते हैं। विनम्रता और आशीष वात्सल्य तो जस का तस! जड़ता से चिपके रहनाख् जीने की संस्कृति नहीं है। यह मानसिकता नये जीवन राग की नहीं है। समय बदला है। खाने की पंगत बूफे में बदल गई। अब कोई कहे कि हम क्या भिखारी हैं? हमारा तो मान—मनुहार—सम्मान तो है ही नहीं! टीवी आया तो संस्कार ही चौपट हो गया। इंटरनेट पर बच्चे देखेंगे, तो अंकुश ही खत्म हो जाएगा। यह सब कुढ़ने—कुड़कुड़ाने की मानसिकता है। और पिछली प्रथाओं के परिणाम भी हमने देखे हैं। घूंघट हटा तो स्त्री का नया रूप आया है। पारिवारिक और समाजिक रंगत ही बदल गई है। आज नारी सहायिका शक्ति है समाज खुला है, तो विदेश में भारत का डंका बजा है। इसलिए प्रकृति के ऋतुचक्र को समझें। जयशंकर प्रसाद कामायनी में लिखते हैं कि पुरातनता का यह रूप प्रकृति एक पल में बर्दाश्त नहीं करती। और नवागत के ...