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कवि की कलम से अपनी बात लिखने बैठा हूँ। अपनी पहली पुस्तक ‘ज़िंदा रहे इंसान’ का। मन उत्साह से भरा पड़ा है। बहुत कुछ लिखने का मन भी है, लेकिन कुछ सूझ ही नहीं रहा कि कहाँ से शुरू करूँ? किस सिरे को पकड़ूँ और किस सिरे को छोड़ दूँ? असल में, मैंने सोच-समझ कर या प्लानिंग अथवा सीटिंग कर कभी कुछ लिखा ही नहीं। जब मन में कोई बात उमड़ने-घुमड़ने लगी तो उसे पन्नों पर उकेर दिया। यह आदत स्कूल के दिनों से ही लगी थी। किशोरवय में अपने ईद-गिर्द की समझ पैदा हुआईतो आसपास घटित हर छोटी-बड़ी घटनाओं ने मन पर प्रभाव डाला। ऐसा होने पर सहज रूप से कागज-कलम ने अपना काम कर दिया। कब किस मूड में क्या लिखा, कैसा लिखा, इनमें काव्य तत्व समाहित हुए कि नहीं, मेरे लिए इससे ज्यादा महत्व इस बात का रहा कि अपनी भावनाओं को मैंने सहेज लिया। यह ‘कविताएँ’ हैं, मैं ऐसा कोईई दावा नहीं कर रहा। यह सब बस मेरी भावनाओं के प्रतिरूप हैं। मैं खुद को आपके सामने रख रहा हूँ। मुझे पढ़ने के लिए। आप पढ़ेंगे तो इसे शिद्दत से महसूस भी करेंगे। अपनी सोच के तहत उभर कर आयी बातों को शब्द रूप में ...