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उपन्यासकार के कुछ शब्द बिहार भले ही कथित तौर पर रसातल में जा रहा हो, यहां की राजनीतिक ज़मीन हमेशा ही उर्वरा रही है. वर्ष 1990 के बाद तो बिहार में गरजती बंदूकें मीडिया से लेकर छोटे-बड़े पर्दों के कथा-कथानक में जबर्दस्त धमक दर्ज करती रही. तीन दशक से ज्यादा हो गये. ’सत्ता नहीं, व्यवस्था परिवर्तन’ की लड़ाई लड़ने वाले जेपी का अनुयायी होने का दंभ भर रहे चेहरे ही सरकार हैं. सत्ता के लिए सिद्धांत, साथी, समर्थक सब बदलते चले गये, पर व्यवस्था जैसी की तैसी रही. सिस्टम अब भी सड़ा का सड़ा है. आलम ये है कि जिनके खिलाफ जेपी ने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया था, उनकी गोद में बैठने से चेले गुरेज नहीं कर रहे. लाल झंडा थामे सर्वहारा की लड़ाईई लड़ने वालों का चरित्र तो और भी विचित्र रहा. विचित्र चरित्र जनता की समझ से भी इतनी परे हो गयी कि बुरी तरह नकार दिये गये. वर्ग संघर्ष करने वाले कॉमरेडों ने नकार दिये जाने के बाद भी सत्ता के गलियारे में बने रहने के लिए जातिवादी राजनीति का जमकर सहारा लिया. दरअसल, बिहार में नक्सलवाद भी जातीय सेना के रूप में ही उभरी. जातीय सेना के रूप में उभरे वाम ...