ईद उल फितर यानी खुदा का शुक्रिया
ईद-उल-फितर इस साल 11 अप्रैल को है. इसका फैसला चांद के दीदार के साथ दो दिन पहले ही ले लिया गया था. इस्लामिक कैलेंडर हिज़री के 10वें महीने शव्वाल की पहली तारीख को ईद-उल-फितर मनाई जाती है. ईद को लेकर मुस्लिम समाज में तैयारियां शुरू हो चुकी हैं. इस स्टोरी में आप ईद-उल-फितर से जुडी अहम जानकारियों से रूबरू हो सकते हैं. आप जान सकते हैं ईद कब, क्यों और कैसे मनाई जाती है?
इस बारे में टीवी9 में प्रकाशित मोहम्मद आमिल के आलेख के अनुसार इस्लामिक कैलेंडर हिज़री का 9वां महीने में रमजान की शुरूआत हो जाती है. इसके बाद 10वां महीना शव्वाल आता है. इस महीने की पहली तारीख को ईद-उल-फितर मनाई जाती. यह मुस्लिम समाज का सबसे बड़ा त्यौहार है. हिज़री कैलेंडर का हर महीना चांद निकलने से शुरू होता है और उसके डूबने पर खत्म होता है. शव्वाल के चांद के दीदार के साथ ईद मनाई जाती है.
ईद के दिन घर में मीठे पकवान बनते हैं. सभी घरों में सिवइयां जरुर बनाई जाती हैं. नए कपड़े पहनना, इत्र लगाना, एक दूसरे को गले मिलकर ईद की मुबारकबाद देना यह सभी इस त्यौहार की खुशियां हैं, लेकिन सिर्फ यहीं काम करने से ईद पूरी नहीं होती. ईद के मायने खुशी होते हैं और इस त्यौहार को सभी के साथ हंसी-खुशी सेलिब्रेट करना सबसे महत्तवपूर्ण काम है.
मुसलमानों को मिली दो ‘ईद’
मुसलमानों को अल्लाह ने खुशी के तौर पर दो ईद दी हैं. इनमें एक ईद-उल-फितर और दूसरी ईद-उल-अज़हा कही जाती है. रमजान के पवित्र महीने के बाद शव्वाल की पहली तारीख को ईद-उल-फितर और हिज़री कैलेंडर के अंतिम महीने ज़िलहिज्जा की 10 तारीख को ईद-उल-अज़हा मनाई जाती है. बात ईद-उल-फितर की करते हैं. इस दिन सभी मुस्लिम ईद की खुशियों में शामिल होते हैं. इस त्यौहार की खुशी में अमीर-गरीब की कोई खाई नहीं होती. सभी लोग नए कपड़े पहनते हैं और अच्छे पकवान खाते हैं. अब आप सोच रहे होंगे कि भला गरीब लोग कैसे इस दिन नए कपड़े और अच्छे पकवान खा सकते हैं? जी हां, ऐसा इस पवित्र त्यौहार में कॉंसेप्ट है, चलिए आइए जानते हैं ईद-उल-फितर के बारे में.
कब और क्यों मनाई जाती है ईद-उल-फितर?
जैसा कि आप पहले पढ़ चुके हैं कि ईद-उल-फितर कब मनाई जाती है. जाहिर है यह रमजान के महीने के बाद मनाई जाती है. यह खुशियों का त्यौहार है. इसकी शुरुआत 02 हिज़री यानी 624 ईस्वी में पहली बार हुई थी. इस त्यौहार को मनाने की दो बड़ी वजह हैं. पहली जंग-ए-बद्र में जीत हासिल करना. यह जंग 02 हिज़री 17 रमजान के दिन हुई थी. यह इस्लाम की पहली जंग थी.
इस लड़ाई में 313 निहत्थे मुसलमान थे. वही, दूसरी ओर तलवारों और अन्य हथियारों से लैस दुश्मन फौज की संख्या 1 हजार से अधिक थी. इस जंग में पैगंबर हजरत मोहम्मद (S.W) की अगुआई में मुसलमान बहुत बहादुरी से लड़े और जीत हासिल की. इस जीत की खुशी में मिठाई बांटी गई और एक-दूसरे से गले मिलकर मुबारकबाद दी गई. इसी खुशी में ईद मनाए जाने की बात कही जाती है.
रोजे पूरे होने की खुशी में अल्लाह का तोहफा ‘ईद’
दूसरी बड़ी वजह रमजान के पूरे महीने में रखे जाने वाले रोजे, रात की तरावीह और अल्लाह की इबादत पूरी होने की खुशी में ईद मनाई जाती है. कुरआन के मुताबिक, ईद को अल्लाह की तरफ से मिलने वाले इनाम का दिन माना जाता है. एक महीने के रोजे रखने के बाद मुसलमान ईद पर दिन के उजाले में पकवान खाते हैं और खुशियां मनाते हैं.
इस दिन खजूर और मीठे पकवान खाने की परंपरा चली आ रही है, जिनमें सिवइयां प्रमुख हैं. मीठे पकवानों की वजह से आम बोल-चाल भाषा में भारत सहित कुछ एशियाई देशों में इसे मीठी ईद भी कहा जाता है. इस दिन ईदगाह में सभी लोग मिलकर ईद की नमाज अदा करते हैं.
ईद-उल-फितर पर ‘फितरा’
ईद-उल-फितर के दिन अमीर और गरीब की खाई मिट जाती है. ईद का त्यौहार सबके साथ खुशियां मनाने का पैगाम देता है. सभी मुसलमान चाहे वो अमीर हो या गरीब सभी इस दिन एक साथ नमाज अदा करते हैं. इस दिन सभी लोग ईद की खुशियों में शामिल होते हैं और इसके लिए कुछ खास नियम बनाए गए हैं. ‘ईद’ के मायने खुशी हैं जिसे आप समझ चुके हैं,.
अब बात ‘फितर’ की करते हैं जिसका मतलब धर्मार्थ उपहार (Charitable Gift) है. इस्लाम में चैरिटी यानी फितरा देना ईद का सबसे अहम पहलू है. ईद की नमाज से पहले हर संपन्न मुसलमान को फितरा देना जरूरी है. यह फितरा गरीबों को दिया जाता है, जिससे वह भी अपनी ईद मना सके और खुशियों में शामिल हो सकें.
दे सकते हैं ‘जकात’
इस्लाम में फितरा देना वाजिब (उचित) है. वहीं, जकात देना फर्ज (अनिवार्य) है. जकात वो मुसलमान देता है जिसके पास इस्लाम के बताए गए नियमों के मुताबिक सोना, चांदी, नकदी और व्यापार हो. इसका सालाना 2.5 फीसदी हिस्सा जकात के रूप में गरीब और जरुरतमंद लोगों को देना फर्ज है. मसलन किसी मुसलमान के पास 52.50 तोला चांदी या 7.5 तोला सोना या फिर दोनों हो उसे जकात देना जरूरी है. यह जकात अपने गरीब रिश्तेदारों, पड़ोसियों, गरीब असहाय को दिया जा सकता है. अधिकतर मुसलमान ईद से पहले जकात अदा करते हैं.
ऐसे मनाई जाती है ईद
ईद के दिन की शुरुआत सुबह फज्र की नमाज के साथ होती है. फिर सभी लोग ईद की नमाज के लिए तैयारियां शुरू कर देते हैं. इस दिन मर्द लोग ईद की नमाज के लिए ईदगाह, जामा मस्जिद या वो नजदीकी मस्जिद जहां ईद की नमाज होती है वहां जाते हैं. नमाज से पहले नहाकर नए कपड़े पहने जाते हैं. खुशबू के लिए इत्र लगाया जाता है. घर से निकलने से पहले खजूर या सीर खाई जाती है. फिर वुजू करके नमाज के लिए जाया जाता है.
ईदगाह में सभी मुसलमान इकट्ठा होकर कांधे से कांधा मिलाकर ईद की नमाज पढ़ते हैं जो सुबह सूरज निकलने के बाद पढ़ी जाती है. ईद की नमाज के बाद सभी लोग एक दूसरे के गले मिलते हैं और ईद की मुबारकबाद देते हैं. इस दिन घरों पर दावते दी जाती हैं जो आपसी मोहब्बत और भाईचारे का पैगाम देती हैं.
मीठी ईद और बकरा ईद में अंतर
मुस्लिम समुदाय में दो बार ईद का पर्व मनाया जाता है, एक ईद को ईद उल-फित्र कहा जाता है, जिसे मीठी ईद भी कहते हैं। वहीं दूसरी ईद को ईद उल अजहा कहते हैं, जिसे बकरा ईद कहते हैं। मीठी ईद के तकरीबन 70 दिन बाद बकरा ईद मनाई जाती है। मुस्लिम समुदाय में दोनों ही त्योहार बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। दोनों ही पर्व को आम भाषा में ईद कहा जाता है। इसलिए ज्यादातर लोग दोनों ईद फर्क नहीं कर पाते हैं। आज हम आपको बताते हैं ईद उल-फितर (मीठी ईद) और ईद-उल-अजहा (बकरा ईद) में क्या अंतर है, जानते हैं।
यह है ईद उल-फितर
साल में जो सबसे पहली ईद आती है, उसे ईद उल-फितर कहा जाता है, इस ईद को मीठी ईद या फिर सेवाइयों वाली ईद भी कहा जाता है। मीठी ईद को रोजा खत्म होने के बाद त्योहार के रूप में मनाई जाती है। पहली ईद उल-फित्र पैगंबर मुहम्मद साहब ने सन् 624 ई. में जंग-ए-बदर के बाद मनाई थी। इस दिन पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब ने बद्र के युद्ध में जीत हासिल की थी। यह ईद उन लोगों के लिए इनाम के रूप में मनाई जाती है, जिन्होंने पूरे महीने रोजा रखे थे।
खुदा को किया जाता है शुक्रिया
ईद उल-फित्र में मुस्लिम समुदाय खुदा का शुक्रिया अदा करते हैं कि उन्होंने महीनेभर रोजा रखने की शक्ति दी। इस ईद में एक खास रकम गरीब व जरूरतमंद के लिए निकाल दी जाती है। इस दान को जकात उल-फित्र कहते हैं। मीठी ईद के दिन नमाज के बाद परिवार में सभी लोगों का फितरा दिया जाता, जिसमें 2 किलो ऐसी चीज दी जाती है, जिसको हर रोज खाया जा सके। इसमें गेहूं, आटा, चावल कुछ भी हो सकता है। इस ईद को मीठी ईद इसलिए भी कहते हैं कि रोजों के बाद ईद पर जिस चीज का पहले सेवन किया जाता है, वही मीठी होनी चाहिए। वैसे मिठाइयों के लेन-देन, सेवइयों और शीर खुरमा के कारण भी इसे मीठी ईद कहते हैं।
यह है ईद-उल-अजहा
ईद-उल-अजहा यानी बकरीद को मीठी ईद के तकरीबन 70 दिनों बाद मनाया जाता है। ईद-उल-अजहा को ईद-ए-कुर्बानी के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इस दिन नियमों का पालन करते हुए हलाल जानवर कुर्बानी दी जाती है। इसे कुर्बानी की ईद और सुन्नत-ए-इब्राहिम भी कहते हैं। क्योंकि इस त्योहार की शुरुआत हजरत इब्राहिम से हुई थी। इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार, बकरीद को साल का आखिरी महीने यानी ज़ु अल-हज्जा या ज़ुल हिज्जा को मनाया जाता है। कुर्बानी एक जरिया है, जिससे बंदा अल्लाह की रजा हासिल करता है।
इस तरह ईद-उल-अजहा की हुई शुरुआत
ईद-उल-अजहा यानी बकरीद को लेकर मान्यता है कि एक बार खुदा ने ख्वाब में आकर इब्राहिम अलैय सलाम से प्यारे बेटे इस्माइल (जो बाद में पैगंबर हुए) की कुर्बानी मांगी थी। इब्राहिम अलैय सलाम के लिए इम्तिहान था, जिसमें एक तरफ तो बेटे से मोहब्बत थी तो दूसरी तरफ अल्लाह का हुक्म। लेकिन इब्राहिम ने अल्लाह का हुक्म मानते हुए अपने प्यारे बेटे को कुर्बानी देने को तैयार हो गए। इब्राहिम जब अपने बेटे की बलि देने लगे तो उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी। जब पट्टी खोली तो उनका बेटा जिंदा खड़ा था बेटे की जगह दुंबा (भेड़ जैसा एक जानवर) की कुर्बानी चली गई, तभी से कुर्बानी देने की रिवाज चल पड़ा।
ईद पर क्या करते हैं
बड़ी ईद (ईद-उल-अजहा) और छोटी ईद (ईद-उल-फितर) दोनों अलग-अलग होते हुए भी सामाजिक रूप से एक जैसी होती हैं। इन दोनों ईद पर 6 बार नमाज अदा की जाती है, जकात दिया जाता है और ईद की बधाई भी दी जाती हैं। रिश्तेदारों-संबंधियों के घर जाना और सामाजिक सरोकार के काम किए जाते हैं। बच्चे नए कपड़े पहनते हैं और घर के बड़े, छोटे बच्चों को ईदी भी देते हैं। जरूरतमंद को खाना खिलाया जाता है और कपड़े व जरूरत की चीजें बांटी जाती हैं।