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मेरा नाम काया है। मेरी कहानी सिर्फ़ मेरी नहीं, उन तमाम कायाओं की भी है, जो अपनी काया ( देह ) की पहचान के लिए भटक रही हैं। सोचो, हम तुमसे क्या चाहते हैं? तुमसे, तुमसे और तुमसे? परिवार से? समाज से? प्रेम ही तो। प्रेम ही तो प्यास है। प्रेम ही तो उजास है। एक प्रेम की तलाश ही तो अनंत में भटकाती है। पर प्रेम पीड़ा भी तो है और पीड़ा है तो क्या प्रेम न करें? दुख है तो क्या डर जाएँ? कैसे ख़ुद को भूल जाएँ, धोखा दे दें ख़ुद को कि यह ‘काया’ हमसे कुछ और माँग रही है? लेस्बियंस हैं तो क्या आत्मा की पुकार को अनदेखा कर दें, मार दें ख़ुद को और गले में पत्थर बाँध डुबो दें किसी अंधकार में। नहीं, मैं ख़ुद को नहीं मार सकती। यह नहीं होगा। अब नहीं होगा। यह ‘काया’ मेरी है। मेरे हक़ से कोई इंकार नहीं कर सकता, न तुम, न तुम और न तुम। समलैंगिक रिश्तों पर आधारित एक संवेदनशील उपन्यास।