
तीन महिलाओं की मित्रता और जीवटता को दर्शाती फिल्म
फिल्मकार पायल कपाड़िया ने अपनी फिल्म ऑल वी इमेजिन ऐज लाइट के लिए प्रतिष्ठित कान फिल्म महोत्सव में ग्रैंड प्रिक्स पुरुस्कार जीतने वाली पहली भारतीय फिल्म निर्माता बनकर इतिहास रच दिया है।यह 30 वर्ष में मुख्य प्रतियोगिता में प्रदर्शित होने वाली किसी भारतीय महिला निर्देशक की पहली भारतीय फिल्म है।
यह पाम डी’ओर के बाद महोत्सव का दूसरा सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार है। 25 मई की रात को खत्म हुए फिल्म महोत्सव का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार अमेरिकी निर्देशक सीन बेकर की फिल्म अनोरा को मिला।
कपाड़िया की फिल्म महोत्सव में 23 मई की रात को प्रदर्शित हुई थी।
इससे पहले मुख्य प्रतियोगिता के लिए चयनित की गयी आखिरी भारतीय फिल्म शाजी एन करुण की 1994 में हुई थी।
कपाड़िया को अमेरिकी अभिनेता वियोला डेविस ने ‘ग्रैंड प्रिक्स’ पुरस्कार प्रदान किया। पुरस्कार लेते हुए उन्होंने फिल्म में मुख्य किरदार निभाने वाली तीन अभिनेत्रियों – कानी कुश्रुति, दिव्या प्रभा और छाया कदम का आभार जताया और कहा कि उनके बिना यह फिल्म नहीं बन पाती।
कपाड़िया का कहना था, ‘‘मैं बहुत घबरायी हुई हूं इसलिए मैंने कुछ लिखा है। हमारी फिल्म यहां दिखाने के लिए कान फिल्म महोत्सव का शुक्रिया। कृपया किसी और भारतीय फिल्म के लिए 30 साल तक इंतजार मत करना।’’
उन्होंने कहा, ‘‘यह फिल्म मित्रता के बारे में, तीन बहुत ही अलग-अलग मिजाज की महिलाओं के बारे में हैं। कई बार महिलाएं एक-दूसरे के खिलाफ खड़ी हो जाती हैं। हमारा समाज इसी तरीके से बनाया गया है और यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन मेरे लिए दोस्ती बहुत महत्वपूर्ण रिश्ता है, क्योंकि इससे अधिक एकजुटता, समावेशिता और सहानुभूति पैदा होती है।’’
मलयालम-हिंदी फीचर फिल्म ‘ऑल वी इमेजिन ऐज लाइट’ एक नर्स प्रभा के बारे में है, जिसे लंबे समय से अलग रह रहे अपने पति से एक अप्रत्याशित उपहार मिलता है, जिससे उसका जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है।
इस फिल्म को कान महोत्सव में दिखाने के बाद आठ मिनट तक खड़े होकर दर्शकों ने तालियां बजायी थीं और अंतरराष्ट्रीय फिल्म आलोचकों ने इसकी शानदार समीक्षा की थी, जिसके बाद यह इस पुरस्कार को पाने की दौड़ में सबसे आगे थी।
इससे पहले शुक्रवार को बुल्गारिया के निर्देशक कॉन्स्टांटिन बोजानोव की हिंदी भाषी फिल्म ‘द शेमलेस’ के प्रमुख कलाकारों में से एक अनसुया सेनगुप्ता ने 2024 के कान फिल्म महोत्सव में ‘अन सर्टेन रिगार्ड’ श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार जीतकर इतिहास रच दिया था।
कपाड़िया की फ़िल्म समकालीन मुंबई शहर के दृश्यों से शुरू होती है, लेकिन, लेकिन हमें बॉलीवुड सितारों और अरबपति उद्योगपतियों की अमीर, कुलीन मुंबई को नहीं दिखाती है।
फ़िल्म निर्माता ने मुंबई शहर की गलियों के साथ यहां के प्रवासियों की वास्तविक आवाज़ों को जगह दी है। वो प्रवासी जो इस शहर की धड़कन भी हैं।
ये कपाड़िया की पहली नैरेटिव फ़ीचर फ़िल्म है, जिसे कान फ़िल्म समारोह के मुख्य कॉम्पिटीशन सेक्शन में प्रदर्शित की गई थी। फ़िल्म जब ख़त्म हुई तो आठ मिनट तक यहां मौजूद दर्शक खड़े होकर तालियां बजाते रहे।
ये ना सिर्फ़ फ़िल्म निर्माता बल्कि भारत के लिए भी एक अहम उपलब्धि है। बीते तीस सालों में ये पहली बार है जब कान फ़िल्म समारोह के मुख्य कॉम्पिटीशन सेक्शन में कोई भारतीय फ़िल्म प्रदर्शित हुई हैं। इस फ़िल्म ने 38 वर्षीय निर्देशिका पायल कपाड़िया को भी सुर्ख़ियों में ला दिया है।
इस पुरस्कार के साथ ही कपाड़िया फ्रांसिस, फ़ोर्ड कोपोला, योर्गोस लैंथिमोस, अली अब्बास, जैक्स ऑडियार्ड और जिया झांगके जैसे निर्देशकों की क़तार में शामिल हो गई हैं।
बीते चार दशकों में भारतीय फ़िल्मों ने अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में ठीकठाक प्रदर्शन किया है।
1988 कान फ़िल्म समारोह में मीरा नायर की सलाम बॉम्बे ने 'कैमरा डी’ओर' पुरस्कार जीता था। साल 2001 में 11 सितंबर को हुए हमलों से कुछ दिन पहले ही मीरा नायर की मॉनसून वेडिंग ने वेनिस फ़िल्म फ़ेस्टिवल में 'द गोल्डन लॉयन' पुरस्कार जीता था।
निर्देशक रितेश बत्रा की 2013 में आई चर्चित फ़िल्म द लंचबॉक्स ने कान समारोह में ‘ग्रैंड गोल्डन रेल अवॉर्ड’ जीता था। इसी साल सनडांस फ़िल्म फ़ेस्टिवल में शुचि तलाती की 'गर्ल विल बी गर्ल्स' ने ग्रैंड जूरी एंड ऑडियंस प्राइज़ अपने नाम किया था।
लेकन कान में 'पाम डी’ओर' या इस फ़िल्म फ़ेस्टिवल के अन्य मुख्य पुरस्कारों में से एक के जीतने की संभावना अभी तक दुनिया में सर्वाधिक फ़िल्म बनाने वाले भारतीय फ़िल्म उद्योग से दूर ही रही है।
द गार्डियन ने फ़िल्म को फ़ाइव स्टार देते हुए इसे, ‘शानदार…. मानवता से भरी हुई एक दिलचस्प’ फ़िल्म बताया है. आलोचकों ने इस फ़िल्म को सत्यजीत रे की महानगर और अरण्य दिन-रात्रि के बराबर रखा है.
दो नर्सों की कहानी
पायल कपाड़िया चर्चित कलाकार नलिनी मलानी की बेटी हैं और मुंबई शहर, इसकी विविधता और बहु-संस्कृति से भलीभांति परिचित हैं.
कपाड़िया कहती हैं, "मुंबई एक ऐसी जगह भी है जहां दूसरी जगहों की तुलना में महिलाओं के लिए काम करना कुछ आसान है."
"मैं ऐसी महिलाओं के बारे में फ़िल्म बनाना चाहती थी जो अपना घर छोड़कर किसी और जगह पर काम करने जाती हैं."
‘इन ऑल वी नो एज़ लाइट’ फ़िल्म में कपाड़िया ने केरल से आकर मुंबई शहर के अस्पताल में काम कर रहीं और यहां एक छोटे और भीड़ से भरे अपार्टमेंट में एक साथ रह रहीं दो नर्सों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी को दर्शाया है.
एक नर्स- प्रभा (कानी कुसरूती, जिन्होंने गर्ल्स विल बी गर्ल्स में भी सहयोगी भूमिका निभाई हैं) शादीशुदा हैं. उनका पति अब जर्मनी में रहता है और उनसे कभी-कभी ही बात करता है. लेकिन फिर अचानक एक दिन उन्हें अपने पति से सरप्राइज़ गिफ़्ट में राइस कुकर मिलता है. वो इस कुकर को ऐसे गले लगा लेती हैं जैसे ये उनकी शादी में प्यार की आख़िरी निशानी हो.
दूसरी नर्स- अनु (दिव्या प्रभा) थोड़ा अधिक साहसी हैं, वो एक युवा मुसलमान पुरुष शियाज़ (हृदु हारून) के साथ रोमांस कर रही हैं, जो केरल से ही है.
अनु हिंदू हैं और उनका परिवार शियाज़ के साथ उनके रिश्ते को स्वीकार नहीं करेगा.
2.2 करोड़ की घनी आबादी वाला मुंबई शहर जहां हर कोई अपनी जगह तलाशने की कोशिश कर रहा है. ऐसे में भीड़भाड़ वाले और सख़्त मॉनसून के माहौल में अनु और शियाज़ को कोई निजी जगह नहीं मिल पाती है.
लेकिन इसी बीच अचानक उनके अस्पताल में काम करने वाली एक तीसरी नर्स- पार्वती (ये किरदार इस साल कान में दो फ़िल्मों में दिख रहीं छाया कदम ने निभाया है)- शहर छोड़ने का फ़ैसला करती है. वो जाने के लिए मजबूर हैं क्योंकि जिस झुग्गी में वो रह रही हैं उसे शहर के अमीरों के लिए हो रहे पुनर्विकास के लिए हटाया जा रहा है.
फ़िल्म समारोह के दौरान बोलते हुए पायल ने कहा, “इस प्रतियोगिता के लिए चयनित होना ही सपने जैसा था और ये अवॉर्ड मेरी कल्पना से परे है.”
पायल ने पोडियम से बोलते हुए कहा, “इस समारोह में पहुंचकर बहुत अच्छा लग रहा है. कृपया अगली भारतीय फ़िल्म के लिए तीस साल का इंतज़ार ना करें. ”
'ऑल वी इमेजिन एज़ लाइट' तीन अलग-अलग महिलाओं की दोस्ती की कहानी है और इस फ़िल्म में कई जगह ये महिला किरदार एक दूसरे के सामने खड़ी नज़र आती हैं.
पायल कपाड़िया ने कहा, “ये फ़िल्म तीन बहुत अलग महिलाओं की दोस्ती की कहानी है और अक्सर महिलाएं एक दूसरे के आमने-सामने खड़ी नज़र आती हैं. हमारे समाज को इसी तरह डिज़ाइन किया गया है, ये बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन मेरे लिए, दोस्ती एक बहुत अहम रिश्ता है. दोस्ती एक दूसरे के प्रति मज़बूत एकजुटता, समावेशिता और सहानुभूति पैदा कर सकती है.”
अवॉर्ड समारोह के दौरान पायल कपाड़िया ने फ़िल्म की अभिनेत्रियों को मंच पर बुलाते हुए कहा, “मुझे नहीं लगता कि इनके बिना ये फ़िल्म बन पाती, इन तीन महिलाओं ने मुझे कितना कुछ दिया है, एक परिवार की तरह इन्होंने फ़िल्म को अपना बनाया.”
कपाड़िया ने कहा, “मैं बहुत नर्वस हूं और इसलिए कुछ लिखकर लाई हूं. ”
पायल ने आंध्र प्रदेश के ऋषि वैली स्कूल से पढ़ाई की और आगे चलकर मुंबई के सैंट ज़ेवियर कॉलेज से अर्थशास्त्र की डिग्री ली. उन्होंने सोफ़िया कॉलेज से एक साल की मास्टर्स डिग्री भी ली है.
फ़िल्मों में उनकी दिलचस्पी उन्हें पुणे के एफ़टीटीआई तक ले गई जहां से उन्होंने फ़िल्म निर्माण की शिक्षा ली.
कपाड़िया की पहली डॉक्यूमेंट्री ‘ए नाइट ऑफ़ नोइंग नथिंग’ ने साल 2021 में कान फ़िल्म समारोह में गोल्डन आई अवॉर्ड जीता था. ये फ़िल्म पुणे के फ़िल्म संस्थान में साल 2015 में हुए छात्रों के प्रदर्शन पर आधारित थी.
इसके अलावा पायल कपाड़िया ने ‘ऑफ़्टरनून क्लाउड्स, द लास्ट मैंगो बिफ़ोर द मॉनसून’ और ‘वॉट इज़ द समर सेइंग’ जैसी फ़िल्में बनाई हैं.
पायल कपाड़िया पुणे के फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया की छात्र रही हैं और 2022 में आई उनकी पहली डॉक्यूमेंट्री इस फ़िल्म संस्थान में हुए छात्रों के प्रदर्शन पर आधारित थी.
2015 में हुए इन प्रदर्शनों के दौरान पायल एफ़टीआईआई की छात्रा थीं और इस दौरान उन पर संस्थान ने अनुशासनात्मक कार्रवाई की थी.
चार महीने चले इन प्रदर्शनों में पायल कपाड़ियां एक प्रमुख चेहरा थीं. बाद में संस्थान ने उन्हें मिलने वाली स्कॉलरशिप में भी कटौती कर दी थी.
पायल कपाड़िया ने तब इन प्रदर्शनों को लेकर कहा था, “आप हड़ताल के लिए छात्रों को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकते हैं. हड़ताल मौज मस्ती के लिए नहीं होती है. इसके लिए बहुत मेहनत और मज़बूत इच्छाशक्ति की ज़रूरत होती है."
"पिछली सरकारों ने भी एफ़टीआईआई को लेकर कई भारी ग़लतियां की हैं. उन्होंने शिक्षाविदों को इंस्टीट्यूट नहीं चलाने दिया बल्कि इसे ऐसे बाबुओं के हाथ में दे दिया जिन्हें सिनेमा की कोई जानकारी नहीं है.”
पायल कपाड़िया ने तब एफ़टीआईआई की छात्रा रहते हुए कहा था कि इस संस्थान के छात्र ऐसी फ़िल्में बनाते हैं जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कला में योगदान करती हैं.
पायल कपाड़िया ने एक साक्षात्कार में बताया है, “मुझे ये फ़िल्म बनाने में पांच साल लगे हैं. फ़िल्म बनाना एक बेहद मुश्किल काम है.”
पायल ने कहा, “ये बहुत बड़ी फ़िल्म नहीं हैं, हमें उम्मीद नहीं थी कि ये कान फ़िल्म फेस्टिवल तक पहुंच पाएगी. जब हमें पता चला तो मैं बहुत उत्साहित थी और नर्वस भी और मुझे बहुत ख़ास महसूस हो रहा था कि ये फ़िल्म अब चर्चा में आ जाएगी, जो कान पहुंचकर मिलती है.”