
साहित्य के दर्पण में धुंधलाता समाज

यह लेख गुलमोर से लिया गया है. उमेश कुमार द्वारा 124 पन्नें की इस वार्षिक साहित्य की पत्रिका में एक दर्जन कहानियां, कविताएं और वैचारिक लेख प्रकाशित किए गए हैं. नीचे के लिंक को क्लिक कर इसकी मैगबुक से खरीद की जा सकती है.
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तकनीक से लैस डिजिटल दौर में समाज, संस्कृति, सरोकार और मानवीयता के सच को साहित्य के दर्पण में तलाशना-तराशना अब सहज-सरल नहीं रहा.... जबकि इंटरनेट नेटवर्क से हमें अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचना आसान हो गया है. सूचना तकनीक के माध्यम से लोगों के साथ घुलने-मिलने और जुड़ने-जोड़ने के लिए अत्याधुनिक सुविधाओं का सोशल मीडिया नेटवर्क एक विशेष उपलब्धि की तरह है.
उसमें पन्ने फड़फड़ाने की आवाज की जगह सरकती उंगलियां से पढ़ने-समझने का ऐहसास बिल्कुल अलग होता है. उसकी रोशनी चेहरे को हमेशा चमकाए रहती है, जबकि चेहरा पठनीयता के साथ स्वतः चमकने की कोशिश करता ही रह जाता है. यानी दिमाग में खालीपन बना रहता है. ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि वह पाठक वर्ग विचारों के आदान-प्रदान की सहजता के बावजूद अपनी वैचारिक घुलनशीलता से संतुष्ट नहीं हो पाता है. उसे अपनी प्रबुद्धता में खलल की भी अनुभूति होती है.... और फिर वह समाज से जुड़ने से वंचित रह जाता हैं.
दूसरी तरफ सोशल मीडिया नेटवर्क में शब्दों का बना हुआ निर्वाधित बहाव है, नई धारा की वैचारिक सोच में विविधताएं हैं. नए संबंधों को तलाशने की ललक है. तथ्यों के प्रति नया नजरया है. नई सोच की हिम्मत है. ताजगी भी है... यहां तक कि उसमें एक सहज गति के साथ-साथ भाषाओं का मिटा अंतर भी है. हिंदी को मिला यूनिकोड के तकनीक का साथ और वैश्विक विस्तार है.
ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि साहित्य आज के दौर की सामाजिक संवेदनशीलता से उफनते ‘इंटरनेट सोशल मीडिया नेटवर्क’ में एक मजबूत जगह क्यों नहीं बना पा रहा है? साहित्य धुंधला हो गया है या फिर सामाजिक विसंगतियां का कोहरा ही घना हो गया है? विविधताओं से भरे राष्ट्र समाज, रहन-सहन और रिवाज की मौजूदा हालात को समझने में कहां चूक हो रही है? इसी के साथ-साथ यह सवाल भी बार-बार कौंध जाता है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन हैं? वह साहित्य, जो इनदिनों डिजिटल बनकर तैर रहा है, या फिर साहित्यकारों की टुकड़ों में बंटीं तथाकथित मठाधीश साहित्यकारों का अहं और साहुकार बने बैठी टिप्पणीकारों की टोलियां ही इसका जिम्मेदार है?
एक पहलू यह भी है कि आज के समय में हमारा साहित्य न तो रचनाशीलता को सही तरह से पाठकों के सामने रख पा रहा है और न ही साहित्यकार सोशल नेटवर्किंग साइट्स के लोकतंत्रिकरण का सही इस्तेमाल कर पा रहे हैं. जबकि साहित्य की चर्चा खूब हो रही हैं. साहित्योत्सव मनाए जा रहे हैं. जितने बड़े प्रकाशन समूह का आयोजन उतनी बड़ी तादात में युवाओं की चौंकाने वाली उमड़ी भीड़... पुस्तकों के प्रकाशन में भी बढ़ोत्तरी हुई है. राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर किताबों के मेले लगाए जा रहे हैं. और तो और, साहित्य की विधाओं में प्रयोग भी किए जा रहे हैं. बावजूद इसके सोशल मीडिया नेटवर्क से बने हुए बेडौल साहित्यिक माहौल के कई रंग देखे जा सकते हैं, जो वाट्सएप ग्रुप, फेसबुक लाइव, जूम या मीट गाष्ठियों, काव्य और कहानी पाठों के रूप में दिखे जाते हैं.
गद्य और पद्य की विभिन्न विधाओं में कहानियां, उपन्यास, गीत-गजल आदि के अधिकतर रचनाकार और रचनाओं में समाज से जुड़ाव की कमी साफ तौर पर नजर आती है. रचना का दृष्टिकोण सकारात्मक न होकर उलझाव लिए हुए होता है. समाज की वास्तविक तस्वीर और सच प्रस्तुत करने के नाम पर उस के निष्कर्ष तक शायद ही कोई साहित्यकार पहुंच पाते हैं. जबकि सामयिकता लिए विषयों, मुद्दों और सामाजिक चेतना-संरचना समेत शिक्षा की जमीन का व्यापक विस्तार हुआ है. यहां तक कि अंग्रेजी के साहित्यकार भी हिंदी में आपनी पहचान तलाशने को लालायित रहते हैं.
कमी है तो सिर्फ यह कि रचनाओं से अधिक रचनाकारों की चर्चा होने लगी है. रचना की टिप्पणियां रचनाकार के नजरिए से की जाने लगी है. उस बारे में समीक्षात्मक वक्तव्य साहित्यकारों की पसंद होने का दबाव बना है. अधिकतर साहित्यकारों ने अपनी उम्र को ही रचनाशीलता, श्रेष्ठता और सर्वश्रष्ठता का पैमान मान लिया है. वह अहं यानी इगो के मनोविज्ञान से ग्रसित हो चुके हैं. वे नए रचनाकारों के साथ तालमेल बिठाना तो दूर उनके साथ मंच की साझेदारी और छपने के दरम्यान क्रम पर भी पैनी नजर रखते हैं. एक साहित्यकार ही दूसरे साहित्यकार को छोटा-बड़ा या घटिया, चिरकुट आदि से संबोधित कर उनकी रचनाशीलता पर सवाल उठा देते हैं. साथ ही साहित्यकारों ने खुद को फास्सिट, वामपंथ, समाजवाद, सेक्युलरवादी, जनतांत्रिक, प्रगतिशील आदि...आदि खांचे में डाल लिया है.
यहीं से पाठकों के मनोविज्ञान को समझने में चूक हो रही है. परिणाम यह निकलता है कि रचना साहित्य की कालजयी कृति के खांचे में जगह बनाने से रह जाती है. इसी के साथ इस सच को हाशिये पर डाल दिया गया है कि पाठक किसी भी रचना को लेखन से, न कि उसके लेखक के नजरिए से पढ़ता है. यही वह कमजोर कड़ी है, जो समाज में झांकने वाले सृजनशील साहित्यकारों को भटका दे रही है, उनकी रचनाशीलता तब कुंद होने की स्थिति में जा पहुंचती है, जब स्वांतःसुखाय वाले साहित्यकार लंबी छलांग लगा लेते हैं.
इसी के साथ चर्चा का यह गंभीर विषय भी बन चुका है कि सोशल साइटों के पेज या वॉल पर लिखी जानी वाली रचनाएं और कागज के पन्नों पर दर्ज साहित्य में किसे प्रभावशाली और स्थायित्व का समझा जाए? यह फर्क ठीक वैसा ही है, जैसे लुप्त होने के कागार पर रॉयल ब्लू स्याही से हस्तलिखित कृति और काले अक्षरों वाले छपे सुंदर दिखने वाले फोंट के साथ किताब के पन्ने....इन दोनों में पाठकों की पठनीयता की अनुभूतियां भिन्न होती हैं. एक में रचना आत्मीयता की भीनी-भीनी खुशबू की तरह पाठक के मन-मस्तिष्क में समा जाती है, जबकि दूसरा ‘बाद में पढ लेंगे’ या स्क्राल की तरह चुपके से सरकाने का भाव मन में स्वतः आ जाता है. उस के बाद उसे दोबारा ढूंढ निकालना मुश्किल काम होता है. यानी कि कृत्रिमता और नैसर्गिकता के फर्क का अनुभव अलग-अलग भाव के मनोविज्ञान के साथ जब जागृत हो जाता है तब उन्हें सहेजने-संभालने की चाहत भी बदल जाती है.
परिवर्तन के दौर में साहित्य के बदलते रंगढंग और उन्हें पाठकों तक पहुंचाने की सबसे बड़ी चुनौती उसके स्थायित्व को लेकर है, जिसका सामना रचनाकारों और संपादक-प्रकाशक करते हैं. उन्हें इस सिलसिले में आर्थिक मोर्चे पर भी जूझना पड़ता है. इस संघर्ष में सबसे कमजोर, कुप्रबंधन की मानसिकता का शिकार लेखक ही बना रहता है, जो कल भी पिछडा़ और कमजोर था आज भी है. इसकी वजह वैसे लेखक और साहित्यकार हैं, जिनके लिए लेखन एक शौक और अतिरिक्त सामाजिक पहचान भर है. उनके लिए लेखन से पारिश्रमिक मायने नहीं रखता है.
ऐसी स्थिति में यह कहना गलत नहीं होगा कि लेखक अपनी सृजनशीलता से समझौता नहीं कर पाने की स्थिति में बहुत ही पीछे धकेल दिया जा सकता है. जबकि हर किस्म के साहित्य से अमेरिका से संचालित गूगल, यूट्यूब, फेसबुक, इंस्टग्राम, ट्विटर मुनाफा कमा रही है. उनमें हमारे हजारों साल पुराने इतिहास और रचनाओं की ग्रंथों से खुरच-खुरचकर निकाले गए कंटेंट इस्तेमाल करते हैं. हमारे मौलिक कंटेंट के जरिए व्यूअरशिप की संख्या दिखाकर विज्ञापनों से मोटा मुनाफा कमाती हैं, जबकि साहित्यकार को फूटी कौड़ी भी नहीं मिलता है. हां! सरकार उनसे टैक्स जरूर वसूल लेती हैं.
इन दिनों रचनाओं की प्रस्तुति के कई माध्यम और मंच चमक-दमक के साथ मौजूद हैं. उनमें प्रिंट से लेकर डिजिटल टेक्नोलाजी और आडियो-वीडियो, वेबसाइटें, लाइव स्ट्रीम, वीडियो कांफ्रेंसिंग और छोटे-छोटे वाट्सएप ग्रुप गु्रप और सम्मान-पुरस्कार के ई-सार्टिफिकेट आदि भी शामिल हो चुके हैं. सामाजिक-राजनीतिक जीवन में सोशल मीडिया ने जिस तरह से धाक जमाई है उससे साहित्य को लोकहित में जनजन तक पहुंचने की उम्मीद तो जागी है, लेकिन इसके छने बगैर साहित्य को लोगों तक पहुंचने के कारण कई तरह की असहजता और असंतुलन की स्थिति भी पैदा हो गई है. लेखक और पाठक दोनों के भ्रमित हो गए हैं. लेखन नए माध्यम को युवाओं ने हाथोंहाथ लिया है. कुलबुलाते विचारों से भरी भावुकता को पलक झपकते ही छोटे से स्क्रीन पर उतार देता है. उससे उनकी एक वैकल्पिक लोकतांत्रिकता का जन्म हुआ है. इसके फायदे हैं तो नुकसान भी हैं. यहीं असली और नकली साहित्य के विवाद का बीजारोपण भी हो चुका है.
एक वर्ग फेसबुक पेज पर लिखे लेखन को साहित्य नहीं मानता है, जबकि दूसरे वर्ग का कहना है कि अगर लेखक अच्छा है तो फेसबुक पर वही लिखेगा, जो कागज पर लिखेगा. अधिकतर स्थापित साहित्यकारों का मानना है कि सोशलमीडिया नेटवर्क पर आने वाला साहित्य जड या कहें ठोस़ नहीं, बल्कि तरल है, हमेशा अपने सतह की तलाश में रहता है, या फिर किसी कोने में छिप जाता है...धुमिल पड़़ जाता है....महत्व खो देता है.!
एक हिंदी का साहित्यकार यह जानकार ही खुश हो जाता है कि भाषा प्रौद्योगिकी के विशेषज्ञों के योगदान से हिंदी कंप्यूटिंग तकनीकि तौर पर समृद्ध और आसान हुई है. सोशल मीडिया की धाक और हैसियत से उनके साहित्य को विस्तार मिल रहा है, लेकिन इनका उपयोग करने वाले हाथ और दिमाग के बढ़ने के बावजूद एक लेखक की खाली जेब कैसे भरी जाए, इसे लेकर किसी भी तरह की पारदर्शी पहल होती नहीं दिखाई दे रही है. जो कुछ है, उसमें पारिश्रमिकी को लेकर पब्लिशर और डिस्ट्रीब्यूटर के साथ लेखक का एक ठोस समझौता होना बाकी है. यह तभी संभव हो पाएगा जब भारत सरकार नीतिगत योजना पर काम करने का मन बना पाएगी.
बहरहाल, सोशल मीडिया नेटवर्क ने प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया को जबरदस्त चुनौती दी है, लेखन क्षमता में जबरदस्त इजाफा हुआ है. सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के साथ-साथ ऐतिहासिक तथ्यों की खुदाई में भी तेजी आई है, लेकिन सभी बेतरतीव की स्थिति में हैं. सामाजिक समझ और जरूरत के आधार पर मुख्यधारा में शामिल होने और सरकार पर दबाव बनाने में नाकाम ही साबित हो रहे हैं. जबकि खेल, सिनेमा और कला के दूसरे क्षेत्र साहित्य जगत से कहीं बहुत आगे है. सहित्य सिर्फ चंद पुरस्कारों तक ही सीमित है. ब्यूरोक्रेट और स्कूल कालेज के शिक्षकों की तरफ शिफ्ट चुका साहित्यकारों की तुलन में इसे प्रोफेशन बनाने वाले साहित्यकारों एजेंसियों के भरोसे रहने को मजबूर हैं.
शंभु सुमन, ग्रुप एडिटर वेब पोर्टल मैगबुकडॉटइन (टीडीएमएन एलएलपी)