भीड़ से अलग खबर और पत्रकार
निखिल रंजन
कम लोग, अधिक जिम्मेदारी, बेहतर सुविधा और खुली सोच के साथ एनडीटीवी ने भारत की मीडिया में एक बिल्कुल अलग रुख के साथ कदम रखा था. वह साल था 1988. उस वक्त भारत में टीवी परिवार, दोस्तों और पड़ोसियों के साथ ड्राइंग रूम में बैठ कर देखा जा रहा था. दूरदर्शन पर वर्ल्ड दिस वीक के साथ साप्ताहिक टीवी पत्रिका के रूप में शुरू हुई ये पहल बहुत जल्द भारत के समाचार जगत में एक मजबूत हस्ताक्षर बन गई और नई शताब्दी की शुरुआत के साथ निजी समाचार चैनलों का सबसे बड़ा नेटवर्क.
भीड़ से अलग
भारत में सेटेलाइट चैनलों के विकास का नतीजा समाचार चैनलों की भारी भीड़ के रूप में भी सामने आया है. इस भीड़ में भी एनडीटीवी अपनी सहज प्रस्तुति, गंभीर विश्लेषण, खबरों के चुनाव और शोर शराबे से दूर प्रोग्रामिंग के दम पर अलग दिखता रहा, चमकता रहा. प्रणय रॉय, राजदीप सरदेसाई, बरखा दत्त, निधि राजदान, अर्नब गोस्वामी, विनोद दुआ, दिबांग, रवीश कुमार, अभिज्ञान प्रकाश जैसे एक के बाद एक उभरे प्रसारकों ने इसे हमेशा खालिस खबर में दिलचस्पी रखने वालों के बीच लोकप्रिय और विश्वसनीय बनाये रखा. बीते सालों में रवीश कुमार की लोकप्रियता ने तो हिंदी पत्रकारिता जगत में कई नये कीर्तिमान जड़े हैं. प्रणय रॉय और राधिका रॉय के इस्तीफे और एनडीटीवी के बिकने से ज्यादा रवीश कुमार के इस्तीफे की चर्चा है.
भारत में चुनाव के विशेष कवरेज और विश्लेषण को शुरू करने का श्रेय एनडीटीवी को है. दूरदर्शन के जमाने से शुरू हुआ काम एनडीटीवी के समाचार चैनल बनने के बाद और बड़ा हो गया. चुनाव हमेशा से एनडीटीवी के लिए एक महापर्व रहा है. एनडीटीवी ने एक तरफ जहां विश्वसनीयता, भाषा और पत्रकारीय कौशल और मूल्यों को प्रमुखता दी वहीं दूसरी ओर तकनीक और नये प्रयोगों का भी जम कर इस्तेमाल किया.
इन प्रयोगों ने उसे अलग पहचान तो दी लेकिन सारे प्रयोग सफल नहीं हुए. खासतौर से मनोरंजन जगत में एनडीटीवी का जाना उसके लिए बड़े नुकसान का कारण बना. सिर्फ कारोबारी वजहों और प्रयोगों की नाकामी के कारण चैनल इस हाल में नहीं पहुंचा है. भारत की राजनीति और अर्थव्यवस्था ने जिस तरह से बीते सालों में अपना स्वभाव, चाल और चरित्र बदला है उसकी भी इसमें एक अहम भूमिका है.
भारत में बदलाव
1990 का शुरूआती दशक भारत में बड़े बदलावों का समय रहा है. एक तरफ राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का उभार तो दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था में उदारीकरण ने भारत को तेजी से बदलना शुरू किया. यह वो समय था जब बीजेपी पूरा जोर लगा कर भी कांग्रेस वाली जगह पर नहीं पहुंच सकी थी. राजनीति, नौकरशाही, अर्थव्यवस्था, मीडिया पर कांग्रेस का वर्चस्व कायम था और बीजेपी इसमें अभी सेंध नहीं लगा पाई थी. एक दो को छोड़ दें तो ज्यादातर न्यूजरूमों में बीजेपी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दक्षिणपंथी राजनीति अभी भी एक तरह से सामाजिक बहिष्कार ही झेल रहे थे. हालांकि बीजेपी की ताकत बढ़ने और कांग्रेस का असर घटने की शुरुआत हो गई थी.
1999 में अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की गठबंधन सरकार बनने के बाद इस परिदृश्य के बदलने की शुरुआत हुई. अब तक बीजेपी को ताकत नहीं मानने वाली पार्टियों और मीडिया को उनके असर का अहसास होने लगा. बीजेपी और दक्षिणपंथ का विरोध पहले जितना फैशनेबल नहीं रहा और सत्ता में होने की वजह से उन्हें जगह देना विरोधियों के लिए भी जरूरी हो गया. इसके साथ ही अखबारों और टीवी चैनलों की निष्ठा की परीक्षा शुरू हो गई. वस्तुतः यह राजनीति के साथ मीडिया में भी एक प्रमुख धारा के उदय और पहले से काबिज प्रतिष्ठानों के साथ उनके संघर्ष का दौर था.
कांग्रेस पार्टी से नजदीकी
यही वो समय था जब एनडीटीवी ने बतौर निजी समाचार चैनल मीडिया की जमीन पर मजबूती से अपने कदम बढ़ाये. अंग्रेजी के साथ हिंदी चैनल को दर्शकों ने हाथोंहाथ लिया और देखते ही देखते यह भारत का सबसे प्रतिष्ठित चैनल बन गया. चैनल भले टीआरपी में नंबर वन नहीं था लेकिन फिर भी राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार उसी की झोली में गिरते. शोरशराबा, कोलाहल और खबरों की नित नई परिभाषा तय करते समाचार चैनलों के बीच एनडीटीवी सिर्फ खबरों के दम पर टिका रहा.
एनडीटीवी पर कांग्रेस के साथ ही नौकरशाहों और देश के तथाकथित एलीट वर्ग से करीबी और सहानुभूति रखने के आरोप लगते हैं. 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार बनने के बाद इसे और ज्यादा महसूस किया गया. यूपीए 1 और 2 के दौरान कई ऐसी घटनाएं हुईं जिनसे इन आरोपों को बल मिला. नीरा राडिया विवाद भी इसी दौर की एक कड़ी था जब एनडीटीवी समेत कई संस्थानों के वरिष्ठ पत्रकारों पर यूपीए के मंत्रिमंडल के सदस्यों के चुनाव की लॉबिइंग में शामिल होने के आरोप लगे.
दूसरी तरफ समय के साथ नये प्रयोग एनडीटीवी के लिए बोझ बनने लगे. गुड टाइम्स, मेट्रोनेशन, प्रॉफिट, अरेबिया और मनोरंजन चैनल एनडीटीवी इमेजिन जैसे चैनलों के असफल होने से एनडीटीवी समूह को भारी झटका लगा. एक तरफ शेयरों के दाम गिरे तो दूसरी तरफ एनडीटीवी पर कर्ज का भार बढ़ने लगा. इन सबके बीच मोटी तनख्वाह वाले पुराने प्रसारक, वरिष्ठ कर्मचारी और उनकी सुविधाएं भी समूह के लिए बोझ बनने लगे. एनडीटीवी ने एक एक कर इनसे पीछा छुड़ाया लेकिन राजस्व और टीआरपी का गिरता ग्राफ ऊपर नहीं उठा
इसी दौर में भारत की राजनीति में कांग्रेस पार्टी की हालत भी बिगड़ती चली गई. लाख कोशिशों के बावजूद राहुल गांधी अपनी पार्टी के बुढ़ाते नेतृत्व और गिरते जनाधार को नहीं संभाल सके और सामने नरेंद्र मोदी के रूप में दक्षिण पंथ और कट्टरता की राजनीति का ऐसा तूफान उठा कि राजनीति की दूसरी सभी धाराएं या तो मुड़ीं, पलटीं या फिर सूख गईं. 2014 में बीजेपी को पूर्ण बहुमत के बाद 2019 में और बड़ी जीत ने बीते कई दशकों से चली आ रही राजनीति की दशा दिशा बदल दी.
अपनी अलग पत्रकारिता की वजह से एनडीटीवी पहले से ही दक्षिणपंथियों के निशाने पर रही है. केंद्र की सत्ता में बीजेपी के मजबूत होने के बाद एनडीटीवी के लिए यह विरोध और बड़ा हो गया.बीजेपी के नेता और प्रवक्ता ना तो एनडीटीवी के कार्यक्रम में जाना पसंद करते हैं ना ही उन्हें इंटरव्यू देना. सत्तापक्ष ने बीते सालों में एनडीटीवी को मीडिया परिदृश्य में खारिज करने की पुरजोर कोशिश की है. बीजेपी समर्थक ट्रोल आर्मी लगातार एनडीटीवी को देशद्रोही और हिंदूविरोधी साबित करने की कोशिश में जुटी रही.
हालांकि इसी वजह से एनडीटीवी के लिए एक नया दर्शक समूह भी तैयार हुआ है जो सरकार की हर बात आंख मूंद कर मान लेने में यकीन नहीं रखता. इसके अलावा मुख्यधारा में जगह पाने से दूर रहे वंचित और कमजोर तबके के लिए भी इस चैनल से कुछ उम्मीदें हैं. अपने पारंपरिक दर्शकों और इन सब धड़ों के साथ यह सरकार के विरोध और वैकल्पिक विचारों का एक बड़ा मंच बन गया जिसकी लोकतंत्र में बड़ी भूमिका है.
देश में जब सरकार का विरोध देश का विरोध बन रहा हो तो फिर ऐसे चैनलों का महत्व और बढ़ जाता है. यही काम एनडीटीवी के साथ हुआ, बीते सालों में वह अकेला चैनल था जो अपने कमजोर पड़ते संसाधनों के बावजूद सरकार के फैसलों को चुनौती देने वाली आवाज बना रहा. आप एनडीटीवी से प्यार या नफरत कर सकते हैं लेकिन उसे खारिज नहीं.
एनडीटीवी पर अपने वित्तीय संसाधनों के कुप्रबंधन के भी आरोप लगते हैं. एक तरफ लगातार बंद होते चैनल, घटते विज्ञापन और दूसरी तरफ से सत्ता पक्ष की बेरुखी से चैनल की हालत बिगड़ने लगी. आखिरकार एक बड़ा फैसला कर डिजिटल तकनीक का सहारा लिया गया और मोबाइल जर्नलिज्म के सहारे गिरते हाथी को बिठाने की कोशिश की गई. इसके साथ ही चैनल ने अपने रुख में भी थोड़ा बहुत बदलाव किया. खर्च घटाने का कुछ नतीजा सामने आया और फिर लंबे समय के बाद कंपनी ने मुनाफे का मुंह देखा. मगर भारी कर्ज के बोझ के आगे यह मुनाफा बहुत मामूली था. उन्हीं कर्जों ने आखिरकार एनडीटीवी के बिकने का रास्ता बना दिया.
कुल मिला कर यह सिर्फ एक चैनल के बनने और बिकने की कहानी नहीं है. सत्ताधारी दल और विपक्ष के बीच मीडिया की खींचतान, खास विचारधारा के समर्थन और विरोध के साथ ही कारोबारी फैसलों, कुप्रबंधन, तिकड़मों और देश की राजनीति का स्वरूप भी इसमें साफ दिखाई देता है. प्रणय रॉय के नेतृत्व में एनडीटीवी की कार्यशैली और चैनल का रवैया हमेशा एक अंतराष्ट्रीय मीडिया संगठन जैसा रहा है और उसे खरीदने वाले गौतम अडानी भी भारत के लिए एक अंतरराष्ट्रीय चैनल की जरूरत को उसके सहारे पूरा करने की बात कह रहे हैं. अब एनडीटीवी जैसी संस्था को संस्थान बनाने की जिम्मेदारी उनकी है.साभार:डीब्लयू