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पारस छुआने दे
पूस की ठंडी धरा प्रात: मखमली दूब की पत्तियों पर हजारों मोती जड़ दिए आसमां ने जगमगाते हीरे जैसे पिपल की खामोश पत्तियों से ओस की टपटपआती बूंदे बरसा की याद दिलाती चुप रह रह कर कपकपाती झूम झूम बेअवाज घंटियां बजाती सोन किरण की चाह में हिल डुल मुस्काती थिरकती कभी मचलती तीर सी सनसनाती पवन कपकपाती तन मन बंधी टहनियों से छोड़ना नहीं चाहती अपनो को शाखें भी छोड़ना नहीं चाहती पन्ना जैसी ओढनी को कोन कहता है तिनके नही उखड़ते उखड़ जाती हैं सांसे अच्छे अच्छों कि क्यों सताती मुझे ठिठोराती मुझे पतझड़ को आने दे खामोशी छाने दे नए गीत बनाने दे चिड़ियों को चहचहाने दे तू भी चली जा जहा तेरी मंजिल जैसे कृष्ण ने दौड़ लगाई गई थी द्रोपदी की लाज बचाने को बसंत बहार आने दे उपवन में छाने दे गुलाल उड़ाने दे मंजर मंजराने दे मधुरस बरसाने दे भौरों को रस पीने दे झूम झूम कर जीने दे कोयल को कूहूं.... कुहूं करने दे पी...हूं पी... हूं पपिहे को 'पारस छुआने दे' सोना बन दिखलाने दे| संक्षिप्त परिचय
राजकुमार सिंह पीजी, गणित, एलएलबी प्रेस क्लब झरिया से सम्मानित धनबाद जिला भोजपुरी अध्यक्ष