
कौन थी वह लड़की
लखनलाल पाल
मैंने हिम्मत नहीं हारी। मैं सोने से पहले इसकी रिहर्सल करता कि कल सुबह अपने दिल की बात इस तरह से कहूंगा, उसका जवाब वह ऐसे देगी तो मैं पलट कर उसका ऐसे उत्तर दूंगा।
हां मैंने उससे बात की और पूरी बात की। मेरी बात सुनकर उसका खिला चेहरा मुरझा गया। वह गंभीर स्वर में बोली-"शादी!नहीं!!" मासूम चेहरे पर उदासी झलक आई, "सर जी, आपने मुझे जो प्यार दिया इसके लिए मैं हमेशा आपकी ऋणी रहूंगी।
मुझे अपने आप पर गुस्सा आ रहा था। अभी कमरा क्यों बदल दिया। नए मकान में पता नहीं क्यों ऊब सी लग रही थी । वैसे कहा जाए तो मकान में कोई कमी नहीं थी। पूरा मकान खाली था और सुविधाएं ठीक-ठाक थीं। यही सोच कर मैंने कमरा बदला था। एक पड़ोसी कह रहा था कि मकान किराए पर लेते समय किसी से पूछ लिया होता। अरे हमीं से पूछ लेते। इस मकान में चार दिन से पांचवें दिन नहीं टिक पाता है कोई।पहले तो मैंने उसकी इस बकवास पर ध्यान नहीं दिया कि यह मकान मालिक से चिढ़ता होगा इसी से यह मकान की बुराई कर रहा है। टिकने वाली बात पर मेरा माथा ठनका-"क्यों नहीं टिक पाता है कोई?"
"मकान में रात को अजीब सी आवाजें आती हैं। एक सुंदर लड़की मकान में घूमती रहती है। उसकी पायलों की झनकार मेरी पत्नी ने भी सुनी है।" पड़ोसी ने धीमी आवाज में रहस्य खोला।
मैं मन ही मन हंसा। मानुष की जाति कितनी उल्टी-सीधी कहानियां गढ़ लेती है। ये कहानियां रोचक भी होती हैं। मैंने पूछा,"मुझे भी दिखाई देगी क्या?"
"जो मकान में रहने आता है सबको दिखाई देती है। पन्द्रह दिन पहले वर्मा जी आए थे, एक रात से दूसरी रात नहीं रुके, तुरंत डंडा-कुंडा उठाकर चले।
पड़ोसी अपनी बात सत्य सिद्ध करने के लिए कौल-किरिया पर उतर आया था।
"जानकारी के लिए धन्यवाद।" यह कहकर मैं अपने कमरे में आ गया।
अजीब लोग हैं। झूठ- मूठ की अफवाह फैलाने में पता नहीं इन्हें क्या मिल जाता है। मैं इन बातों में विश्वास नहीं करता हूं। मुझे तो खीझ इस बात से हो रही थी कि मित्रों के कहने पर मैं घर जाने को तैयार क्यों नहीं हुआ। मैं ऐसा कौन जानता था कि लॉकडाउन इतना लंबा खिंच जाएगा ।
संगी साथी सब घर चले गए थे। मैं अपनी हठ में यहीं रह गया। यह पता नहीं था कि लॉकडाउन ऐसा लग जाएगा। सब कुछ बंद था। लोग अपने घरों में कैद होकर रह गए थे। इस बीमारी की दहशत ऐसी थी कि आदमी भूखे-प्यासे शहर से गांव की ओर पैदल भागने लगे। महामारी के डर से अब वे वहां नहीं रहना चाहते थे। उनकी सोच थी कि मरना ही है तो घर-गांव में क्यों न मरें। यही सब उनके दिमाग में भरा हुआ था। समाचार चैनल भी यही सब दिखा रहे थे।
लॉकडाउन में मैं फंस गया। निचाट अकेला,करता तो क्या करता? मेरा गांव यहां से बहुत दूर है। तीन सौ किलोमीटर पैदल चलने की हिम्मत मुझमें नहीं थी। कामवाली बाई ने हाथ खड़े कर दिए। अब वह भी काम पर नहीं आएगी। झाड़ू—पोंछा कौन करेगा,मेरे लिए खाना कौन बनाएगा? आफत में जान फंस गई थी। छूत की बीमारी किसी को भी हो सकती है,और किसी से हो सकती है। कामवाली बाई की सोच गलत न थी।मैंने कह दिया था कि ऐसे समय में मैं तेरा पैसा नहीं काटूंगा।
सड़कों पर पैदल चलने वाले लोगों से मुझे सहानुभूति थी। बेचारे भूखे पेट अपनी मंजिल पार कर रहे थे। कुछ दयालु लोग उनके खाने का इंतजाम कर रहे थे पर वह पर्याप्त नहीं था। मेरे दिमाग में यही सब घूम रहा था। जैसे-तैसे मैं रात का खाना खाकर बिस्तर पर लेट गया।
सुबह कुंडी की आवाज से मेरी नींद खुल गई। सोचा, इतने सवेरे कौन हो सकता है? मैंने उठकर दरवाजा खोला। सामने बाईस-तेईस साल की लड़की खड़ी थी। मैंने इशारे से कहा,"का बात है?"
"मैं बहुत परेशान हूं,खाने को कुछ नहीं है।"
मुझे उसकी परेशानी समझ में आ गई। मैं भीतर गया और लौटकर पांच सौ रुपए का नोट उसके हाथ पर रख दिया। उसने रुपए लेने से मना कर दिया। मैं असमंजस में था कि लड़की रुपए क्यों नहीं ले रही है?
"सर मुझे काम चाहिए।"
"ऐसे में तोखें को काम दैहै?"
"ऐं!"
मैं समझ गया कि वह मेरी बोली नहीं समझ पा रही है। मैं घर में अक्सर अपनी बोली में बात करता हूं। या यूं कहो कि इस बोली की टोन मेरी वार्तालाप में समा चुकी है। मैंने कहा-" कोरोना फैला है, ऐसे में तुझे कौन काम देगा?"
"सर मैं साबुन से हाथ धोकर आपका काम करूंगी।"
मेरे सामने लड़की ने समस्या खड़ी कर दी। बिना जान-पहचान के कैसे काम पर रख लूं। मैंने कहा,"किसी जानकार को साथ लाओ।"
"ऐसे समय में कोई घर से बाहर तो निकल नहीं रहा है,मैं किसको ले आऊं?" लड़की ने अपनी असमर्थता व्यक्त की।
"नहीं, मैं नहीं रख सकता हूं।"
उसके चेहरे पर मायूसी झलक आई। मैं किवाड़ बंद करने वाला था कि वह चहक उठी,"सर जो बाई आपके यहां काम करती थी उसे मैं जानती हूं।" उसने काम वाली बाई का सारा इतिहास बता दिया। इसके अलावा उसने और भी प्रतिष्ठित लोगों के नाम बताए।
मैंने अंत में हां कर दी। तनख्वाह पूछी तो वह बोली कि मैं अपने और मां के लिए यहां से भोजन ले जाया करूंगी।
"ठीक है जितना पैसा कामवाली बाई को देता था,तुम्हें भी दे दिया करूंगा।" वह लौटने लगी तो मैंने उसका नाम पूछा। उसने अपना नाम बता दिया। मैंने उसका मोबाइल नंबर भी ले लिया। ट्रूकॉलर पर वही नाम लिखा आ रहा था जो उसने बताया था।
सरकार मुझे ऐसे समय में वेतन दे रही है तो इन्हें पैसे देने में क्या दिक्कत है।
वह दूसरे दिन जल्दी आ गई। झाड़ू-पोंछा के बाद उसने खाना बनाया। उसने मुझे थाली परसकर दे दी। खाना स्वादिष्ट बना था।
आठ- दस दिन में वह काफी घुलमिल गई थी। बात- बात पर उसकी खिलखिलाहट से मकान में संगीत सा गूंजता। वीराने समय में संगीत की कुछ तरंगे मेरे दिल में मिठास घोलने लगी।
कभी-कभी मुझे लगता था कि यह आम लड़की नहीं है। इसमें कुछ तो है जो मैं समझ नहीं पा रहा हूं। उसकी चाल- ढाल कामवाली बाई जैसी नहीं थी। किसी अच्छे घर जैसा रहन-सहन था उसका। मैंने सोचा इस लॉकडाउन में अच्छे-अच्छों के टाट लौट गए, हो सकता है इसका भी लौट गया हो।
खाना बन गया था। उसने आग्रह करके कहा, "सर जी खाना खा लो, ठंडा हो जाएगा।"
कुछ दिनों से मैंने महसूस किया कि इस घर में उसकी उपस्थिति कुछ ज्यादा रहने लगी है। पता ही नहीं चलता था कि यह कब आई और कब चली गई। मुझे लगता था कि वह चली गई है पर वह बाथरूम में नल के पास बैठी कपड़े धो रही है।
सोते समय लगता कि वह किचन में कुछ कर रही है। सपने में उसका अक्स दिखाई देता। दिन पर दिन वह सुंदर होती जा रही थी। धोती- ब्लाउज में उसका अलग ही रूप धिपता था। लाल साड़ी में तो उसका जवाब ही नहीं था। उसकी हेरन बड़ी मदमस्त थी। सबसे बड़ी खासियत उसके सफेद दांत थे। इतनी सुंदर नारी सपने में ही आ सकती है।
मैंने अपने-आपको धिक्कारा, "ऐसी बातें मैं क्यों सोचता हूं ?" इसका उत्तर देना दिमाग के हिस्से आता है इसलिए वही बोला, "मैं सोचता कहां हूं, सपने आ रहे हैं तो इसमें मेरा क्या दोष है?"
अगले दिन वह समय से काम पर आ गई। खाना खाते समय मैंने पूछा, "तू साड़ी पहनती है क्या?"
"नहीं, सलवार-सूट पहनती हूं।"
मुझे लगा जैसे वह मुस्कुरा रही हो, लेकिन वह मुस्करा नहीं रही थी। शायद मेरे ही दिमाग का रसायन गड़बड़ा गया हो। लॉकडाउन के कारण कहीं आता-जाता नहीं हूं इसी से खुराफात सूझ रही है। अब मैंने निश्चय कर लिया था कि अच्छा सोचूंगा ताकि दिमाग में यह सब चीजें न आएं। सोते समय मैं इसका खास ध्यान रखूंगा।
रात का खाना बना-खिलाकर वह अपने घर चली गई। मैं अपने बिस्तर पर लेट गया।
वह धीरे से मेरे पास आकर बैठ गई। उसकी देह की खुशबू मुझे पागल बना रही थी। मैंने उसकी देह को छुआ तो शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गई। वह मुस्कुरा रही थी। उफ् उसकी आंखों से प्रेम उमड़ रहा था। वह मेरे बालों को सहलाने लगी। अब हम दोनों एक साथ थे। मैंने उसके कोमल अंगों को छूना चाहा, तभी मेरी नींद खुल गई। मैंने इधर उधर देखा, कोई नहीं था। बाथरूम से नल के चलने की आवाज आ रही थी। मैंने उसका नाम लेकर पुकारा। उसने जवाब में कहा कि मैं इधर ही हूं।
मैं उठकर बाथरूम में पहुंचा तो वहां कोई नहीं था। मैंने पूरा मकान छान मारा, कहीं कोई न मिला। मैंने अपने मुंह पर पानी के छींटे मारे, क्लियर हो गया था कि मैं जाग रहा हूं।
दिमाग हिल गया था। कमरे में वही खुशबू भरी थी। मन में शंका उभरी। पड़ोसी की चुगली याद आई। अपने आप रोंगटे खड़े हो गए। मैं भले ही डर को हुतेल रहा था किन्तु शरीर अपना धर्म नहीं छोड़ रहा था ।
मैं अपने आप पर हंसा-" तू भी दकियानूसी बातों पर एतबार करने लगा। इन बातों से ध्यान हटाने के लिए मैंने किताब उठा ली पर किताब ने संग न दिया। जैसे कह रही हो कि मेरे पास क्या रखा है,तेरे दिमाग में बहुत माल भर गया है, उसी को खर्च कर। अनमने ढंग से मैंने किताब अलमारी में पटक दी।
सवेरे वह आई पर कुछ पूछने की हिम्मत न पड़ी। उसका चेहरा खिला हुआ था। पूरे घर में वह तितली सी मड़रा रही थी। उसकी देह की वही खुशबू मुझे पिछली रजनी की ओर लौट आ रही थी।
"सर जी, आज आपकी आंखें चढ़ी हुई हैं, रात में सोए नहीं हो क्या?" वह मुस्कुराती हुई बोली।"
मैं अवाक् रह गया। ये कैसे जान गई कि मैं रात को सोया नहीं हूं। यही तो मैं इससे पूछना चाहता था।
मेरी इस हालत पर वह मुस्कुराई, "कुछ चल रहा है क्या?"
"नहीं तो।"
"ओ मेरे छोना बाबू।" वह मस्ती में तुतलाई।
"क्या कहा, फिर से कहो?" मेरा रोम-रोम खिल उठा।
"आपको क्या हो गया है सर जी? तबीयत तो ठीक है?"
"मुझे ऐसा क्यों लगा कि तू कुछ कह रही है?" मैंने अपनी बात उससे कही, "मुझे रात को बहुत सपने आते हैं।"
वह खिलखिलाई। वही रात वाली मोहक हंसी। हंसी मुस्कुराहट में बदली,"सपने में मैं तो नहीं आती हूं?"
मेरा मुंह खुला का खुला रह गया। इसे कैसे पता कि मैं इसी के सपने देखता हूं। क्या इसकी छठी इंद्रिय इतनी प्रबल है कि यह सब कुछ जान जाती है। बड़ी रहस्यमयी लड़की है भाई।
"नहीं, ऐसा कुछ नहीं है।" मैंने झूठ कह दिया।
वह मेरी ओर ऐसे देखने लगी जैसे उसने मेरा झूठ पकड़ लिया हो।
"तुम्हारा घर कहां है?" मैंने स्वाभाविक रूप से पूछ लिया।
"यही मेरा घर है।" वह चहकी," हमलोग तो जहां काम करते हैं वही हमारा घर होता है।"
यह लड़की सीधा जवाब नहीं देती है। कुछ पूछो, कुछ उत्तर देती है। और मैं... ....मैं इसकी बातों में रस का अनुभव करता हूं। शायद मैं उससे प्यार करने लगा था। उसकी उपस्थिति मुझे अच्छी लगती है। फिर भी एक झिझक है।
"सर जी! आज खाने में क्या बनाऊं?"
"जो बनाना हो बना ले, मैं खा लूंगा।"
मुझे खाना खिलाकर उसने दूसरे काम निपटाए। टिफिन में खाना भरा और झोला में डाल कर बोली,"सर जी मैं जा रही हूं, किवाड़ बंद कर लेना।"
मैं बाहर आया। वह मेरे इंतजार में बाहर खड़ी थी। उसकी लंबी और छरहरी काया 'संपूर्ण स्त्री' के रूप में मेरे सामने थी। मैं उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में उलझ गया। वह आंखें मुस्कुरा रही थी। दिल में आ रहा था कि कह दूं थोड़ी देर बैठ ले। पर हिम्मत न पड़ी।
"जा रही हूं, अपना ख्याल रखना सर जी। और हां उल्टे-सीधे सपने मत देखा करो।" इतना कहकर वह मुस्कुराती हुई चली गई।
प्रत्युत्तर में मेरे होठों पर मुस्कुराहट नाच गई। कुछ देर तक मैं उसी के बारे में सोचता रहा।
मैं बहुत देर तक सोच में डूबा रहा। अपने सपने के बारे में... अपने जीवन के बारे में... न जाने कितने चित्र उकेरे। ये चित्र मैंने सपनों के महल में बनाए थे, जिन्हें केवल मैं देख सकता हूं, अन्य कोई नहीं देख सकता, क्योंकि वे सपने मेरे विकृत मानस की उपज थे।
मैंने पानी पिया और यथार्थ के धरातल पर अपने पांव कसकर जमाए। बूढ़ी दादी बताती थी कि सपने ज्यादा आएं तो खटिया के नीचे एक लुटिया पानी भरकर रख लेना चाहिए, सपने कभी ना आएंगे।
मैंने यही तरकीब अपनाई। रात भर चैन से सोया। सपने बिल्कुल नहीं आए।
सुबह जागकर मैं छत पर टहलने लगा। दिमाग का फितूर मिट रहा था, पर लड़की की छवि अब भी आंखों में झूल रही थी। बेताबी से मैं उसका इंतजार करने लगा।
आज लड़की देर से आई थी। मैंने देरी का कारण नहीं पूछा। ऐसे समय में वह आ रही है यह कौन कम है। उसने अपने सारे काम निपटाए। आज मुझे उसका चेहरा बुझा-बुझा सा लग रहा था। उसकी आवाज में वह खनक न थी जो प्रतिदिन हुआ करती थी। मुझे शंका हुई कहीं कल की बात का इसे बुरा तो नहीं लग गया। इसी से मैंने कोई बात नहीं की। सुबह का खाना लेकर वह घर चली गई।
रात के खाना में उसने भिंडी की सब्जी बनाई। मैं यह सब्जी कम खाता हूं पर उसके हाथ की बनी यह सब्जी मुझे स्वादिष्ट लगी। इस समय वह खुश दिख रही थी। हंसी में वही खिलखिलाहट थी। उस हंसी ने मेरा डर दूर कर दिया था। मन में एक बात कौंध रही थी,"लड़की जाति को समझना टेढ़ी खीर है। कब रूठ जाए कब खुश हो जाए, पता ही नहीं चलता।"
अब हमारी पहले जैसी बातें होती रही ।उसकी बड़ी-बड़ी कजरारी आंखें बहुत भली लग रही थी।
मैंने सोते समय उस टोटका की ग्याली नहीं की। मतलब मैंने पानी से भरी लुटिया खाट के नीचे रख ली। आराम से पैर पसार कर लेट गया ।
अचानक लुटिया के लुढ़कने की आवाज से मेरी आंख खुल गई। सामने लड़की खड़ी थी। मेरे मुंह से निकला "तैं गई नहियां अभै?"
"तुम्हारी भाषा मुझे समझ में नहीं आती है।"
"बैठो।" मैंने उसे बैठने को कहा।
वह बैठ गई। मैंने उसके बैठने के लिए खटिया में जगह बना दी । वह मुस्कुराई," सिर दुख रहा हो तो दबा दूं।"
वह मेरा सिर दबाती रही। उसकी देह की मादक खुशबू मुझे पागल करने लगी। मैंने उसका हाथ थाम लिया।वह मुस्कुराई। उसने धीरे से अपना हाथ छुड़ाया। मेरे हाथ और आगे बढ़े। वह हाथ हटाती हुई बोली, "तुम दुबले हो गए हो। मैं तुम्हारे हाथ-पैर दबाकर जा रही हूं।"
इस 'न' में आक्रमण का खुला आमंत्रण प्यार के आवरण में लिपटा कितना मारक था इसे तो वही समझ सकता है, जो इससे घायल हुआ हो। उसकी मुस्कराहट ने युद्ध के नगाड़े बजा दिए थे। जहां से वापस लौटना असंभव था। जहां जीत-हार दोनों अपना अस्तित्व खो बैठते हैं। ऐसे मदमाते युद्ध से मैं भिड़ गया। ताकतवर दुश्मन मात पर मात दे रहा था।
अपनी हार पर मैं निढाल हो गया। आंख खुलने पर महसूस हुआ कि मैं यह युद्ध हार चुका था। दुश्मन अंतर्धान था। मैं उठकर बाथरूम चला गया। दिमाग में वही घटना रील की तरह चल रही थी।आज का सपना दिल को गुदगुदा रहा था।
कॉलेज नहीं जाना, किसी परिचित के घर नहीं जाना, बाजार-दुकानें सब बंद, इस उबाऊ समय से लड़ने के लिए मोबाइल सबसे अच्छा माध्यम था। सो मोबाइल के सहारे मेरे दिन कट रहे थे।
खाली समय में मैंने अपने दोस्त से फोन पर बात की। कोरोना बीमारी और लॉकडाउन चर्चा के विषय रहे। सड़क पर भटकते मजदूर... उनके लड़के-बच्चे... उनकी बेबसी... इस सब पर लंबी वार्ता हुई। फिल्म अभिनेता सोनू सूद ने इन प्रवासी मजदूरों की जो सहायता की उसके इस काम की हमने भूरि-भूरि प्रशंसा की।
फोन पर बात करते समय कई विषय आए गए। हंसी-ठिठोली सब कुछ आ गया था इस वार्ता में। उपसंहार में उसने वही बात दोहराई जो वह हमेशा कहता है, ''यार शादी कर ले। नौकरी मिल गई है,छोरी मिले में देर थोड़े लगेगी। तू हां तो कर।"
"हां यार, सोच रहा हूं शादी कर लूं।"
"लड़की मिल गई क्या?"
"मैं बाद में बात करता हूं।" मैंने फोन काट दिया।
दरअसल लड़की आ गई थी। निर्णय मुझे करना था। लड़की की चिंता नहीं थी कि वह मेरे निर्णय को काट देगी। पर्सनालिटी मेरी बुरी न थी। पर्सनालिटी के संग अगर सरकारी नौकरी हो तो लड़की को और क्या चाहिए?
मैंने सोच लिया था कि आज बात करूंगा। बस मौके की तलाश थी। मैं उसका मूड देखकर ही बात को आगे बढ़ाऊंगा।
...लेकिन हर बार की तरह इस बार भी हिम्मत जवाब दे गई। क्योंकि तर्क आगे आ रहे थे। एक तर्क ने यहीं अपना पांव अड़ा दिया,"अचानक किसी से ऐसे कैसे कह दूं कि मैं तुझसे शादी करना चाहता हूं।"
मैंने हिम्मत नहीं हारी। मैं सोने से पहले इसकी रिहर्सल करता कि कल सुबह अपने दिल की बात इस तरह से कहूंगा, उसका जवाब वह ऐसे देगी तो मैं पलट कर उसका ऐसे उत्तर दूंगा।
हां मैंने उससे बात की और पूरी बात की। मेरी बात सुनकर उसका खिला चेहरा मुरझा गया। वह गंभीर स्वर में बोली-"शादी!नहीं!!" मासूम चेहरे पर उदासी झलक आई, "सर जी, आपने मुझे जो प्यार दिया इसके लिए मैं हमेशा आपकी ऋणी रहूंगी। मैं बूंद बूंद प्यार के लिए कितनी भटकी हूं, ये आप नहीं समझेंगे। आपने अपने असीम प्यार से मुझे अभिभूत कर दिया है, मैं आपकी शुक्रगुजार हूं।"
उसकी आंखों से झर- झर आंसू बह रहे थे, "मेरा कोई ठिकाना नहीं है। डाल से तो बहुत पहले टूट चुकी थी। अभी तक मैं भटक रही थी। आपने मुझे थाम कर मेरा बड़ा उपकार किया। मैं शांत हो चुकी हूं, इसलिए आपको हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ कर जा रही हूं। हो सके तो मुझे माफ कर देना।"
वह उठ कर खड़ी हो गई। मैंने उसका हाथ पकड़ना चाहा, लेकिन वह मुझसे लगातार दूर होती जा रही थी।मैंने उसे रोकने के लिए झपट्टा मारा। उसे मैं पकड़ तो न सका पर इस झपट्टे में मैं खाट के नीचे गिर गया।
इसके बाद वह कभी मेरे यहां नहीं आई। मैंने उसे खूब ढूंढा पर उसका पता न चला। उसने जो अपना पता दिया था वह फर्जी निकला। उस नाम की वहां कोई लड़की न थी। मैंने उसका फोन मिलाया। मेरे फोन पर मोबाइल कंपनी से एक लड़की की आवाज आ रही थी-" कृपया अपने नंबर की जांच कर लें। जितनी बार मैंने फोन मिलाया उतनी ही बार यही आवाज सुनने को मिली। मैंने नंबर की जांच की तो मैं सन्न रह गया। मोबाइल नंबर दस अंको का होता है उसमें आठ अंक फीड थे। मेरा दिमाग भन्ना गया। तो क्या मैं उससे इन्हीं आठ नंबरों से बात करता रहा। मैंने उन नंबरों को पढ़ा -76 687151.. ..।देह में झुरझुरी सी दौड़ गई। रिक्त अंको की जगह अन्य अंक फिट करे पर सफलता न मिली।
मित्रों क्या कहते हो, कौन हो सकती है वह लड़की? भूतनी प्रेतिनी या भटकती आत्मा, जो उस मकान को भुतहा बनाए थी।
मैं उससे अब भी प्यार करता हूं। वह छोड़कर गई है मैंने नहीं छोड़ा है उसे। सुनहरे पलों के साक्षी रहे हैं हम दोनों। प्रेतिनी कहकर मैं उसका अपमान नहीं कर सकता ।
अब मैं आपको सच बता ही दूं। वह न तो भूतनी थी ना प्रेतिनी और ना ही मृत आत्मा। वह मेरे "विकृत मानस से जन्मी एक खूबसूरत कल्पना" थी ।जब तक वह मन में रहती है तब तक मन आनंद में लहालोट बना रहता है, और जैसे ही उसे बाहर निकालो वह घृणा की मूरत बन जाती है।
उसके फोन के आखिरी दो अंकों को घटाने जोड़ने की कोशिश मत करना। वह फोन नहीं उठाएगी।
लेखक परिचय
नाम - लखनलाल पाल
पिता का नाम - स्व० श्री अमरजू
माता का नाम - श्रीमती दयारानी
जन्मतिथि - 02-07-1968
जन्म स्थान- ग्राम व पोस्ट- इटैलिया बाजा जिला हमीरपुर उत्तर प्रदेश- 210422
शिक्षा- बी.एस-सी.(गणित),बी.एड, एम.ए (हिन्दी) ,पीएच.डी
साहित्यिक गतिविधियां- हंस,कथादेश,कथाक्रम,लमही,युद्धरत आम आदमी, सृजन समीक्षा आदि में कहानियां प्रकाशित।
प्रकाशित पुस्तकें- बाड़ा,ऋतदान, रमकल्लो की पाती उपन्यास
कहानी संग्रह- पंच बिरादरी
सम्मान व पुरस्कार- प्रतिभा प्रोत्साहन मंच उरई द्वारा सन् 2009 में श्रेष्ठ युवा कहानीकार सम्मान
चाणक्य साहित्य परिषद द्वारा सन् 2010 में साहित्येन्दु सम्मान
अखिल भारतीय साहित्य परिषद द्वारा सन् 2011 में श्रेष्ठ युवा कथाकार सम्मान
संस्कार ग्रामोत्थान संस्था उरई से सन् 2018 में उपन्यास ऋतदान को रजत पुरस्कार तथा सन् 2019 में उपन्यास रमकल्लो की पाती को स्वर्ण पुरस्कार प्राप्त
संपर्क- कृष्णा धाम के आगे अजनारी रोड नया रामनगर उरई जिला जालौन उत्तर प्रदेश-285001