बैंक के इतिहास पर एक नजर
स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रीयकरण बैंकिंग उद्योग के लिए सबसे बड़ा पड़ाव रहा। 19 जुलाई, 1969 की मध्यरात्रि को कम से कम 50 करोड़ रुपये की जमा पूंजी वाले 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। फिर 1980 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का दूसरा दौर चला, जिसमें न्यूनतम 200 करोड़ रुपये की जमा पूंजी वाले छह और बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ। राष्ट्रीयकरण के पहले दौर से ठीक पहले जून 1969 में 73 वाणिज्यिक बैंक थे, जिनकी 8,262 शाखाएं थीं। अब देश में 100 बैंक हैं। इनमें 12 सार्वजनिक क्षेत्र, 21 निजी क्षेत्र, तीन स्थानीय क्षेत्र बैंक, 12 स्मॉल फाइनैंस बैंक, छह पेमेंट बैंक और 46 विदेशी बैंक हैं। इनके अलावा 43 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक भी हैं। वे भी अधिसूचित वाणिज्यिक बैंकों की श्रेणी में आते हैं। गत वर्ष दिसंबर के आंकड़ों के अनुसार उनकी 2,11,332 शाखाएं हैं। जून 1969 में बैंकों की जमा राशि 4,646 करोड़ रुपये और उनके द्वारा दिया गया कर्ज 3,599 करोड़ रुपये था। इस साल जुलाई में जमा राशि बढ़कर 169.7 लाख करोड़ रुपये हो गई, जबकि बैंकों द्वारा दिए गए कर्ज का आंकड़ा 123.7 लाख करोड़ रुपये पहुंच गया।
वैसे तो भारत में बैंकिंग का संदर्भ कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ के समय से ही मिलता है, लेकिन आधुनिक इतिहास की बात करें तो भारत में वाणिज्यिक बैंकिंग की शुरुआत 1720 में ‘बैंक ऑफ बॉम्बे’ से हुई। फिर 1770 में ‘बैंक ऑफ हिंदोस्तान’ ने कलकत्ता में शुरुआत की। यहीं पहले प्रेसिडेंसी बैंक- बैंक ऑफ बंगाल-की नींव भी रखी गई। उसे 1823 में करेंसी नोट जारी करने का अधिकार मिला। फिर 1840 में बैंक ऑफ बॉम्बे के रूप में दूसरे प्रेसिडेंसी बैंक की स्थापना हुई। उसके बाद जुलाई 1843 में बैंक ऑफ मद्रास नाम से तीसरा प्रेसिडेंसी बैंक शुरू हुआ। इन तीनों का 1921 में इंपीरियल बैंक में विलय हो गया। इसी बैंक ने 1935 में भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना से पहले तक केंद्रीय बैंक की भूमिका निभाई। जहां इन बैंकों की स्थापना के पीछे अंग्रेज रहे, वहीं पहला भारतीय बैंक इलाहाबाद बैंक 1865 में अस्तित्व में आया। उसके बाद 1895 में पंजाब नैशनल बैंक (लाहौर में) बना। उसके 11 वर्ष उपरांत 1906 में बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना हुई। वर्ष 1906 से 1913 के बीच कई बैंक फलते-फूलते गए। इस दौरान सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया, बैंक ऑफ बड़ौदा, केनरा बैंक और इंडियन बैंक जैसे नाम उभरे। दिसंबर 1913 तक विभिन्न किस्म के 56 बैंक और सामने आए। उनमें 12 विनिमय बैंक भी थे, जो विदेशी विनिमय कारोबार में सक्रिय थे। वर्ष 1930 तक तक वाणिज्यिक बैंकों की संख्या करीब दोगुनी बढ़कर 107 हो गई।
इस अवधि में दो विश्व युद्धों और महामंदी ने तमाम बैंकों को धराशायी कर दिया। फिर भी 1947 तक समूचा बैंकिंग उद्योग निजी स्वामित्व के दायरे में था और उनमें छह में से प्रत्येक के पास कम से कम 100 करोड़ रुपये का पोर्टफोलियो था।
तबसे बैंकिंग के मोर्चे पर हमने खासी प्रगति की है। फिर भी परिसंपत्तियों की दृष्टि से मात्र एक ही भारतीय बैंक विश्व के शीर्ष 50 बैंकों में जगह बना पाया है। हमारा क्रेडिट-जीडीपी अनुपात विकसित देशों को तो छोड़िए भूटान से भी कम है। इतना ही नहीं विश्व बैंक की एक ताजा रपट के अनुसार विश्व के सात देशों में 140 करोड़ वयस्क अभी भी औपचारिक बैंकिंग सेवाओं तक पहुंच से वंचित हैं। इन देशों में से एक भारत भी है। रपट के अनुसार भारत में 13 करोड़ लोग ऐसे हैं। जिन लोगों की बैंकिंग सेवाओं तक पहुंच भी है, उनका भी एक दमनकारी वित्तीय प्रणाली में शोषण-उत्पीड़न हो रहा है। ऐसा कहने के पक्ष में मेरे पास अपने तर्क हैं।
श्रीमान ए की एक निजी बैंक में सावधि जमा (एफडी) है। उन्हें एक क्रेडिट कार्ड दिया गया और बैंक में बचत खाता खुलवाने के लिए भी राजी कर लिया, जिसमें खाते में न्यूनतम बैलेंस रखने के पहलू की ओर उनका ध्यान आकृष्ट ही नहीं कराया गया। दो साल बाद परिपक्व होने पर ब्याज अर्जित करने के बजाय श्रीमान ए की एफडी और सिकुड़ गई। क्यों? क्योंकि, बचत खाते में न्यूनतम बैलेंस नहीं था और हर तिमाही पर एफडी की एक निश्चित राशि हर्जाने के तौर पर ली जाती रही। श्रीमान ए को कभी इसकी सूचना नहीं दी गई।
श्रीमान बी का एक बड़े सरकारी बैंक के साथ दो दशक पुराना नाता रहा। उनका बचत खाता, एफडी और पारिवारिक सदस्यों के कई खातों के साथ ही बैंक में उनका एक लॉकर भी था। जब 82 वर्षीय श्रीमान बी उसी शहर के दूसरे इलाके में रहने चले गए तो उनके सभी खाते तो करीबी स्थानीय इलाके की शाखा में स्थानांतरित हो गए, लेकिन लॉकर नहीं हो पाया। नई शाखा में उन्हें लॉकर सुविधा तभी मिलती जब वह एक लाख रुपये सालाना वाली बाजार-लिंक्ड पॉलिसी लेते।
तीसरा उदाहरण और दिलचस्प है। इसमें ग्राहक अमेरिका में रहने वाला एनआरआई है। यहां मिस्टर सी का मुंबई के एक निजी बैंक की शाखा में एनआरओ खाता है। बंबई उच्च न्यायालय ने वसीयतनामे की पुष्टि के बाद उनकी बेटी को माता-पिता की संपत्ति का अधिकार प्रदान किया। कर अदायगी के बाद कायदे से इसमें राशि को लाभार्थी के खाते में डाल दिया जाता। पंरतु शाखा ने खाते को ही फ्रीज कर दिया, क्योंकि बैंक वित्तीय वर्ष के समापन से पहले राशि निर्गत नहीं करना चाहता। क्यों? इससे जमा राशि जुटाने का लक्ष्य पीछे रह जाता। आखिरकार पैसे अप्रैल के पहले सप्ताह में जारी हुए। इस प्रकार लाभार्थी को कर अदा करने के लिए एक और वित्तीय वर्ष की प्रतीक्षा करनी पड़ी, क्योंकि यहां लेनदेन 31 मार्च के पहले नहीं हो पाया था।
चौथा उदाहरण तो सबसे विचित्र है। श्रीमान डी की एक निजी बैंक के संबंध प्रबंधक से गाढ़ी दोस्ती थी, जिन पर वह आंख मूंदकर भरोसा किया करते थे। प्रबंधक ने मिस्टर डी को 2019 से सितंबर 2001 में उनकी मृत्यु के बीच नौ बीमा पॉलिसी बेचीं। प्रबंधक इस बात से पूरी तरह अवगत थे कि सभी बीमित व्यक्ति अमेरिकी नागरिक हैं। चतुर बैंकर ने पॉलिसी के समयबद्ध भुगतान के लिए इलेक्ट्रॉनिक क्लियरिंग सर्विस (ईसीएस) का प्रावधान किया। उनके निधन के बाद जब उनकी पत्नी को यह पता लगा तो संपर्क प्रबंधक ने आश्वस्त किया कि तीन वर्षों तक प्रीमियम अदा करने के बाद पॉलिसी को सरेंडर किया जा सकता है और मूल राशि वापस हो जाएगी। इस बीच बीमाकर्ता ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि किसी व्यक्ति के निधन की स्थिति में दावा खारिज हो जाएगा, क्योंकि इसमें बीमित व्यक्ति की नागरिकता आड़े आ जाएगी। उन नौ बीमा पॉलिसी का सालाना प्रीमियम पता है कितना था? तकरीबन 11,40,000 रुपये।