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नए विचारों के विरूद्ध बढ़ती कट्टरता अयोध्या। लेखकों, स्वतंत्र विचारकों, पत्रकारों और रचनात्मक क्षेत्र से जुड़े लोगों पर हमले और फतवे चिंतन की प्रक्रिया को संचालित करने के प्रयास हैं। रूढ़ियों के विरुद्ध जो स्वर उभरते हैं, उनके दमन की योजनाबद्ध प्रक्रिया इस सदी में भयावह रूप में सामने आ रही है। चाहे वह सलमान रूश्दी पर हमला हो, या फिर तस्लीमा नसरीन को मारने की धमकी। इसमें एक ख़तरनाक बात यह सामने आ रही है वह नफरत का पीढ़ियों में संक्रमण है। ये बातें रविवार 21 Agust को गुलजार सोसाइटी की ओर से गुलजार के जन्मदिवस पर प्रतिवर्ष होने वाले आयोजन में पत्रकार व लेखक गीताश्री ने वार्ता के क्रम में कहीं। वार्ता में गुलजार सोसाइटी की अध्यक्ष पूनम सूद के प्रश्नों के उत्तर में उन्होंने कहा वैचारिक पहरा लगाने की कोशिश ही है कि एक लेखिका अपने देश में सुरक्षित नहीं है और जहां शरण ली वहां भी कट्टरपंथी उनके लिए खतरा बने हुए हैं। वह हर क्षण भर के वातावरण में जीने के बाध्य हैं। एक चित्रकार को देश छोड़ देना पड़ता है और एक लेखक पर इसलिए हमला हो जाता है कि उसके विरुद्ध कभी फतवा जारी किया गया था। दो तीन दशक पहले जारी फतवे से एक बीस बाइस साल का नौजवान मध्य पूर्व के देशों की यात्रा में प्रभावित होता है और प्राणघातक हमला कर देता है। उन्होंने कहा हमले से भी अधिक भयावह और घातक वह सोच है, जो स्वतंत्र विचार पर पहरा लगाना चाह रही है। इस सोच का परिणाम है कि गौरी लंकेश की हत्या हो जाती है। हम एक सभ्य समाज के निर्माण की प्रक्रिया में कहां चूक रहे हैं, इस पर विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि अधिकांश मामलों में यह देखा गया है कि हमलावरों या विरोध करने वालों ने ना तो लेखकों, कवियों, विचारकों को ना तो पढ़ा होता है और ना ही उनके लेखन के उद्देश्य को समझा होता है। वे सुनी सुनाई बातों पर ही यकीन कर के आक्रोशित हो जाते हैं। एक उदार समाज की स्थापना ऐसे वातावरण में कठिन है, जबकि असहमतियों व नए विचारों के विरूद्ध कट्टरता बढ़ती जा रही है। गीताश्री ने अपनी कुछ कहानियों के कथानक और पात्रों पर हुए विवादों के संदर्भ में कहा कि मेरा कोई पात्र या कथानक काल्पनिक नहीं है। बल्कि वह सोच काल्पनिक है जो समाज को वैसे देखना चाहती है, जैसा वह सोच रहा है। और स्वयं भी निजी जीवन और विचारों में कोई बहुत शुचि व शुद्ध नहीं और ऐसा संभव भी नहीं हो सकता। समाज जैसा है, वैसा ही है। वह किसी की सोच से संचालित नहीं होता। यह बात अलग है कि मैंने जिन पात्रों का चयन किया, जो कथानक चुना, वह समाज का सत्य होते हुए भी काल्पनिक समाज की अवधारणा को तोड़ने वाले हैं। उन्होंने कहा कि समाज बदल रहा है, मान्यताएं बदल रही हैं। फिर भी महिलाओं के प्रति रूढ़िवादी सोच में मध्यकालीन तत्व विराजमान हैं। जबकि पूर्व में इससे कहीं इतर सामाजिक जीवन रहा है, जिनमें हमारे पौराणिक पात्र भी शामिल हैं। इस विमर्श की सार्थकता उदारवादी समाज और स्त्री की स्वतंत्र चेतना विकसित होने में निहित है।