आजादी के दीवानों की तीर्थस्थली
सुरेश चौहान
सैल्युलर जेल, बंगाल की खाड़ी में अंडमान निकोबार द्वीप समूह की राजधानी पोर्टब्लेयर में स्थित है। भारत का यह स्थान, भारत की मुख्य भूमि से बहुत दूर समुद्र में होने के कारण, स्वत्रंता संग्राम के दौरान यहां पर लाये जाने वाले कैदियों को ‘काला पानी की सजा’ दिये जाने के नाम से भी जाना जाता था। सन् 1896 में पहाड़ की चोटी को काटकर समतल कर इस जेल का निर्माण कार्य आरम्भ किया गया था। इसके निर्माण कार्य को पूरा करने का लक्ष्य 3 वर्ष रखा गया था, लेकिन यह 10 वर्ष पश्चात् 1906 में बनकर तैयार हुई। इसे बनाने के लिए हर-रोज 600 कैदियों से अत्यंत कठोर श्रम करवाया जाता था। देश के विभिन्न हिस्सों से लाए गये ये कैदी अधिकतर वो क्रांतिकारी थे जो बिट्रिश राज के विरूद्ध आवाज उठाते थे। यहां लाकर उन्हें चेतावनी भी दी जाती थी कि यदि वह यहां से भागने की कोशिश करेंगे तो इसका परिणाम उनकी मौत ही होगी क्योंकि यहां से चारों ओर 10 मील की दूरी तक सिर्फ और सिर्फ गहरा समुद्र है।
वास्तव में इस जेल के चारों ओर दूर दूर तक गहरा समुद्र होने से कैदियों को कहीं से भी भागने का रास्ता न होने के कारण ही एक खुराफाती अंग्रेज ने यहां इस जेल का निर्माण करवाया था, साथ ही यह स्थान यहां लाये जाने वाले कैदियों की जन्म-भूमि से कोसों दूर भी था, जो उनका मनोबल तोड़ने के लिए बहुत उपयुक्त जगह थी। यहां भारत के इतिहास के वो काले पन्ने लिखे गये है जो आज भी चीखचीख कर देश के क्रांतिकारियों पर अंग्रेजों द्वारा ढाए गये बेइंतहा जुल्मों की दास्तान कहते हैं । यह जेल सैंकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों का दर्द अपने में समेटे मूक गवाह के रूप में आज भी खड़ी है। अंग्रेज सरकार की सोची समझी चाल से इस जेल में 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने वाले भारत के वीर क्रांतिकारियों को अपनी जन्म-भूमि से अलग-थलग करने के लिये कैद किया जाता था। जिससे बाकी क्रांतिकारियों का मनोबल भी तोड़ा जा सके। यह जेल आज राष्ट्रीय स्मारक का रूप ले चुकी है। दूर दूर से देश-विदेश के पर्यटक इसे देखने आते हैं और शहीदों के प्रति अपनी सच्ची श्रद्धांजली अर्पित करते हैं।
इस जेल में 698 कमरे (सैल) थे। जेल का आकार साइकिल के पहिये की भांति गोलाकार रूप में बनाया गया । जिसकी सात विंग्स थी । ( अब केवल तीन विंग्स ही बची है) दिव्तीय विश्वयुद्ध के दौरान हुई बमबारी से इस जेल की चार विंग्स ध्वस्त हो गई थी। सातों विंग्स तीन मंजिला थी। प्रत्येक विंग्स के सामने अगली विंग्स का पीछे का हिस्सा बनाया गया है जिससे कैदियों का आमने-सामने सम्पर्क न हो सके। सभी विंग्स की लम्बाई एक समान नहीं थी। कुछ विंग्स लम्बी थी तो कुछ विंग्स की लम्बाई कम थी जिससे सभी विंग्स में कमरों की संख्या भी बराबर नहीं थी। इस जेल की ईटें म्यांममार (बर्मा) से मंगवाई गई थी। गोलाकार वाली इन सातों विंग्स के मध्य भाग में एक टावर है जो इन सभी को जोड़ने का काम करता है लेकिन सुरक्षा की दृष्टि से इसे सभी विंग्स से थोड़ा हटकर बनाया गया है ताकि कैदी यहां तैनात सुरक्षा कर्मचारियों पर हमला न कर सके। आपातकाल में अर्लट करनें के लिये इस टावर में एक बड़ी घंटी भी लगी हुई है। सन् 1938 तक इस जेल में कैद, सभी कैदियों को अंग्रेज सरकार ने रिहा कर दिया था। दिव्तीय विश्वयुद्ध में जापानियों ने इस द्वीप पर कब्जा कर, अपने खिलाफ जासूसी करने वालों को इसी जेल में कैद कर उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी थीं।
जेल के मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही दाएं-बाएं दोनों ओर संग्रहालय बने हुए हैं जहां अंग्रेज सरकार की जड़े हिलाने वाले, वीर सावरकर और उनके सगे भाई जैसे सभी क्रांतिकारियों के नाम, स्थान और उनको कैद किये जाने का वर्ष, सहित उनकी तस्वीरे लगाई हुई हैं। कहते हैं कि वीर सावरकर और उनके भाई को दो साल तक अंग्रेज सरकार ने भनक तक नहीं लगने दी कि वे दोनों एक ही जेल में बंद हैं। इस जेल में देश के कोने कोने से उन स्वतंत्रता सैनानियों को लाकर सजा के लिए कैद कर रखा जाता था जिनका देश प्रेम देखकर अंग्रेज सरकार भयभीत रहती थी। संग्रहालय में मूर्तियों के माध्यम से अंग्रेजों द्वारा क्रांतिकारियों पर ढाये गये जुल्मों की कहानी दर्शायी गयी है। टाट के बने कपड़े व कठोर श्रम करते कैदियों को मूर्तियों द्वारा दर्शाया गया है। बेंत खाते व बेड़ियों में जकड़े स्वतंत्रता संग्राम के कैदियों की मूर्तियां यहां रखी हुई हैं, जिन्हें देखकर यहां आने वाला हर पर्यटक मौन रह कर क्रांतिकारियों को दी जाने वाली हृदयविदारक यातनाओं को महसूस करता है। जेल के मैदान में आज भी वंदेमातरम की मशाल जल रही है। यहां हररोज शाम को ध्वनि और प्रकाश के कार्यक्रम द्वारा क्रांतिकारियों को इस जेल में अंग्रेजों द्वारा दी जाने वाली यातनाओं को दर्शाया जाता है।
इस मैदान के एक ओर फांसीघर बना हुआ है। यहां स्वतंत्रता सैनानियों को फांसी दी जाती थी। फांसी देने से पहले कैदियों का उनके धर्म के अनुसार संस्कार किया जाता था। जिस पत्थर पर उन्हें नहलाया जाता था वह पत्थर आज भी यहां मौजूद है। क्रांतिकारियों के दिलों में खौफ पैदा करने के इरादे से एकसाथ तीन कैदियों को फांसी दी जाती थी। फांसी देने से पूर्व टावरहाउस से सुबह-सुबह घंटे को बजाना शुरू कर दिया जाता था, जिससे यहां के कैदियों सहित दूर-दूर तक लोग समझ जाते थे कि आज किसी को फांसी दी जाने वाली है। फांसी देने के बाद क्रांतिकारियों के शवों के साथ पत्थर बांधकर उन्हें समुद्र में फेंक दिया जाता था। उनके परिजनों को इस बारे में सूचना देना भी अंग्रेज सरकार अपना कर्तव्य नहीं समझती थी। जिस पत्थर पर उन्हें नहलाया जाता था उसी पत्थर के साथ ही एक झोंपड़ीनुमा बांस का शैड है जहां एक कोल्हू रखा हुआ है, जिस से कैदियों को तेल निकालने जैसे कठोर श्रम करने की सजा दी जाती थी। इस कोल्हू में बैलों की जगह कैदियों को जोता जाता था और उन्हें एक दिन में 30 पाउंड नारियल का तेल या 10 पाउंड सरसों का तेल निकालना होता था, जो निर्धारित समय सीमा के भीतर पूरा करना अत्यंत कठिन कार्य होता था। जो कैदी इस कार्य को पूरा नहीं कर पाते थे उनकी बेंतों से पिटाई होती थी और जो पूरा कर लेते थे, उन क्रांतिकारियों के शारीरिक बल से भयभीत अंग्रेज अधिकारी, उन्हें लोहे के बने तिकोने फ्रेम में बांध कर बेंतों से बुरी तरह से तब-तक पीटते जब-तक कि वे अधमरे नहीं हो जाते थे। बाद में उन्हें कालकोठरी में बंद कर दिया जाता था और उन्हें इन्सानी मल-मूत्र डालकर दूषित खाना खाने के लिए बाध्य किया जाता था। इसे न खाने पर उन्हें फिर बहुत बुरी तरह से मारा-पीटा जाता और हफ्तों तक खाना नहीं दिया जाता था। इतनी प्रताड़ना सहने पर कई कैदियों का मनोबल टूट भी जाता था और वह मानसिक रोगी भी हो जाते थे।
आजादी के दीवानों की इस तीर्थस्थली पर आकर अंग्रेजों के जुल्मों की कहानी सुनकर यहां आने वालों की रूह कांप जाती है और प्रत्येक भारतीय की आंखें नम हुए बिना नहीं रहती। आज देश के भटके हुए युवाओं और नेताओं को अपने काले कारनामों से फुरसत मिले तो वे यहां अवश्य आयें और देश को मिली आजादी की कीमत को पहचानने की कोशिश जरूर करें।