
सम्मान रेत समाधि को मिला है..
नीतू सुदीप्ति 'नित्या'
लंदन में 19 मई 2022 को जैसे ही भारतीय लेखिका गीतांजलि श्री को उनके उपन्यास रेत समाधि के अंग्रेजी अनुवाद टुंब ऑफ सैंड को अंतराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला पूरा भारत खुशी के आगोश में डूब गया। भारत ही क्यों हिंदी बोली, समझी और पढ़ी जाने वाली उन देशों में भी खुशी की लहर दौड़ गई. यह पहला मौका रहा जब किसी हिंदी उपन्यास के अनुवाद को यह पुरस्कार मिलकर इतिहास रच दिया। इसे इस नजरिए से भी देखा जाना चाहिए कि अंग्रेजी वालों ने हिंदी को सम्मान दिया। हिंदी के उपन्यास रेत समाधि को अंग्रेजी भाषियों तक पहुंचाने के लिए उनकी भाषा में अनुवाद किया।
गीतांजलि श्री का यह उपन्यास 2018 राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था। अमेरिकी पत्रकार लेखिका चित्रकार डेजी राकवेल ने 2021 में इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया, जिसका शीर्षक रखा टुंब ऑफ सैंड।
बुकर पुरस्कार के तहत 50 हजार पाउंड करीब 50 लाख रुपए मिले जिसे गितांजलि श्री ने अपनी अनुवादक डेली राकवेल के साथ समान रूप से साझा किया और ऐसा होना भी चाहिए । डेली ने अंग्रेजी अनुवाद भी इतने सुंदर तरीके से किया कि उसे बुकर पुरस्कार से नवाज दिया गया।
जहां एक तरफ रेत समाधि के लिए गीतांजलि श्री को बधाइयां मिलने लगी, वहीं दूसरी तरफ कुछ बुद्धिजीवी इस पर अपने आपने स्तर से नकारात्मक टिप्पणी भी करने लगे। किसी से उपन्यास में भाषा को लेकर सवाल खड़े किए तो किसी ने अपने सीमित सोच से कहा कि पुरस्कार रेत समाधि को या गीतांजलि श्री को नहीं मिला है बल्कि टुंब ऑफ सैंड को और डेली को । सम्मान अंग्रेजी भाषा को मिला है।
उनके ज्ञान को बढ़ाते हुए मेरा एक सवाल है तब तो रविंद्र नाथ टैगोर को या गीतांजलि को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला बल्कि उन के अनुवादक सांडा ऑफरिंग्स को नोबेल मिला।

बांग्ला भाषा हो या हिंदी या कोई दूसरी भाषा नोबेल या बुकर पाने के लिए उसका अंग्रेजी में अनुवाद होना जरूरी है। इतनी सी बात लोगों को पल्ले नहीं पड़ रहा है और इसी कारण गीतांजलि श्री को लोगों ने कटघरे में खड़ा कर दिया।
भारत का कोई नेता अगर विदेश जाता है और वहाँ हिन्दी में भाषण देता है, तो वहाँ के अनुवादक अपने देश के लोगों को अपनी भाषा में उनका भाषण सुनाते हैं यहीं बात भारत पर भी लागू होता है। विदेश का कोई मंत्री भारत आता है तो वह अपनी ही भाषा में भाषण देता है और यहाँ के हिन्दी अनुवादक उनका भाषण हिन्दी में अनुवाद कर हम भारतीयों को टी.वी., अखबार और रेडियों के जरिए हमें बताते हैं।

यह उदाहरण इसलिए दिया ताकि हिन्दी – अंग्रेजी भाषा के संकीर्ण विचारों से ऊपर उठा जाए। भारत की बेटी ने विश्वपटल पर अपने हिन्दी उपन्यास के जरिए डंका बजाया है, उसका सम्मान कीजिए आदर कीजिए न कि विरोध कीजिए। यह विरोध ठीक नहीं है।
अभी सभी प्रकाशकों के मन में यह बात चल रही होगी कि हमारे जो महान साहित्यकार प्रेमचंद, रेणु, महादेवी वर्मा, विष्णु प्रभाकर, कमलेश्वर, चित्रा मुद्गल आदि ऐसे हजारों लेखकों की पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद कर बुकर या नोबेल के लिए भेजा जाए। चुकी बुकर प्राइज हो या नोबेल प्राइज दोनों विदेश से ही दिया जाता है और दोनों के ज्यूरी सदस्य विदेशी ही होते हैं कोई भारतीय नहीं। विदेशी ज्यूरी सदस्यों को हिन्दी नहीं आती उन्हें बस अंग्रेजी आती है, इसलिए अंग्रेजी में अनुवाद किया जाता है। इतनी छोटी सी बात कुछ बुद्धिजीवियों साहित्यकारों के पल्ले क्यों नहीं पड़ रहा है ?? और वह लगातार गीतांजलि श्री का विरोध करते जा हैं।
80 वर्षीय वृद्धा की जिस यथा, कथा और व्यथा का चित्रण रेत समाधि में किया गया है वहीं अंग्रेजी अनुवाद टुंब ऑफ सैंड में है। जो भाव, विचार और संवेदना रेत समाधि में है वहीं टुंब ऑफ सैंड में है । इसकी मूल लेखिका गीतांजलि श्री ही हैं। अगर वह चाहती तो खुद भी अंग्रेजी में उसका अनुवाद कर सकती थीं मगर उन्होंने डेली राकवेल को मौका दिया और उन्होंने उसे खूबसूरती के साथ अनुवाद कर चौका मार दिया।
गीतांजलि श्री अगर रेत समाधि नहीं लिखती तो डेली राकवेल क्या जमीन का अनुवाद करती या आसमान का ? अंग्रेजी से पहले रेत समाधि फ्रेंच में भी अनूदित है। अभी दूसरी भाषाओं में अनुवाद जोर शोर से हो रहा है।
भविष्य में अब सारी भाषाओं का अनुवाद का रास्ता खुल गया है अब इसी में कोई चौका मारे या छक्का मारे यह कहानी के कथानक के ऊपर है।
यहाँ ध्यान देने योग्य है आमिश त्रिपाठी और चेतन भगत अंग्रेजी में ही उपन्यास लिखते हैं और बाद में उसका हिन्दी अनुवाद होता है और उसी हिन्दी अनुवाद की लाखों प्रतियां बिकती हैं। दोनों लेखकों की पुस्तकें हिन्दी- अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं में अनुवादित हैं जिसे जो भाषा आती है वह अपनी भाषा की किताब खरीद कर पढ़ता है। इतनी साधारण सी बात है फिर भी हल्ला मचा हुआ है।
तस्लीमा नसरीन का उपन्यास लज्जा पहले बांग्ला में ही प्रकाशित हुआ था और बाद में हिन्दी में अनुवाद हुआ और उसकी लाखों प्रतियां बिक्री हुई ।
बहुत लेखकों के गले से यह बात भी नहीं उतर रही है कि कैसे एक अदना-सी स्त्री ने बुकर पर हाथ साफ कार दिया?आप रेत समाधि का या गीतांजलि श्री का अपमान नहीं कर रहे हैं बल्कि आप उस कागज और कलम-कलम का विरोध कर रहे हैं जिस पर आप वर्षों से लिखते आ रहे हैं।
आप बुकर पुरस्कार के जरिए एक स्त्री का अपमान कर रहे हैं। आप भविष्य में होने वाले अंग्रेजी भाषा के अनुवाद का अपमान कर रहे हैं।
आपको बुकर या नोबेल भारत से चाहिए तो भारत सरकार से इसकी स्थापना कराइए।जितनी शिद्दत से गीतांजलि श्री ने रेत समाधि लिखा है उतनी ही शिद्दत से डेली राकवेल ने उसका अंग्रेजी में अनुवाद किया है तभी तो बुकर के ज्यूरी ने इसे शानदार और आकाट्य कहा है।
यहाँ एक बात पर और गौर करें एक अमेरिकी डेली राकवेल जो सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी जानती, बोलती, कहती, सुनती और पढ़ती है उसने हिन्दी में हाँ भाई हाँ हिन्दी में रेत समाधि को पढ़ा है, जाना है आत्मसात किया है तब उसने अंग्रेजी में अनुवाद किया है। क्या यहाँ हमारे लिए सभी भारतीयों के लिए गर्व की बात नहीं है कि एक अमेरिकी महिला हिन्दी में उपन्यास पढ़ रही है उसका अनुवाद कर रही है भारतीय सभ्यता संस्कृति को विश्व पटल पर ले जा रही है। क्या यह गर्व की बात नहीं है या विरोध की बात है। अभी डेली राकवेल और उत्साह से भरी होगी और ज्यादा से ज्यादा वह हिन्दी भाषा की किताब पढ़ेगी और उसका अनुवाद करेगी। उसके दोस्त – कलिग उससे प्रेरणा लेकर हिन्दी भारतीय भाषा के प्रति और प्रेम दिखाएंगे उसे पढ़ेंगे।
साउथ की फिल्म पुष्पा : द राइज या आर, आर, आर या बाहुबली आदि सभी तमिल – तेलुगु में ही बनी हैं, फिर उसको हिन्दी में डब किया गया और करोड़ों लोगों ने देखा उसकी अच्छी कमाई हुई। यहाँ विरोधियों ने विरोध क्यों नहीं किया?