बंद कमरे की सिसकियां
वंदना पुणतांबेकर(लेखिका इंदौर की चर्चित कहानीकार हैं. उन्होंने महिलाओं की भावनाओं को अपनी कहानियोें में बेवाकी के साथ जगह दी है.)
मुझे उनकी सिसकियां सुनाई दे रही थी मैं अपने आप को बहुत ही विवश महसूस कर रही थी. मेरा मन रो रहा था सोचा ऊपर जाकर एक बार उनसे मिल लू, मैं जीने चढ़ रही थी. आखरी जीने तक जाते-जाते बदबू से मेरा सिर चकराने लगा मैं दरवाजे तक पहुंची ही थी कि अचानक नीति की मां ने आवाज लगाई कौन है.?
कमरे की दीवारें सिर्फ ईटों से बनी थी ना सीमेंट,ना पुताई.दो तीन छिपकलियों का सदा डेरा रहता. बारिश के दिनों में चारों ओर से दीवारें गीली हो जाती.
धूप में भयंकर तपती और ठंड में बर्फ सी जम जाती. दरवाजे के नाम पर टीन का पतला सा टप्पर का दरवाजा और टीन की छत वह भी सही तरीके से बनी नहीं थी.
दो बल्लियों पर कस दी गई थी. ऊपर से एक ईट की पाल बनी थी. बस बन गया कमरा वह भी तीन मंजिला बिल्डिंग के ऊपर कॉमन छत पर कमरे के अंदर एक लोहे का पलंग उसी पलंग पर कुछ कपड़े और गद्दे के नाम पर गोदड़ी बिछी थी.
लाइट के नाम पर नीचे से ऊपर तक एक होल्डर में लटका पच्चीस वाल्ट का टीमटीमाता बल्ब.
सारे दीन दुनिया से अलग था वह कमरा न किसी का आना ना किसी का जाना.
समय और परिस्थितियां इंसान को इतना अपाहिज बना देगी यह कभी आभा ताई ने सोचा भी ना था. जिंदगी के इस पड़ाव पर यूं भूखे पेट आधा खाना मिलना वह भी यदि किसी को याद रह पाता तो कि वह ऊपर बैठी है.वह हर किसी का इंतजार करती रहती.नीचे सभी अपने-अपने कामों में व्यस्त रहते.
आभा ताई नीति की बुआ थी उन्होंने शादी नहीं की थी.
सारी जिंदगी भाई के बच्चों के लिए कमाती रही. घर-घर जाकर ट्यूशन पढ़ाना और अपने लिए सिर्फ जरूरत भर की वस्तुएं.
बाकी सारा पैसा भाई के बच्चों की पढ़ाई उनकी ख्वाहिशों पर लुटा देती बच्चों की सालगिरह मनाती मेले ले जाती।
कभी टॉफियां मिठाई ओर ना जाने क्या-क्या बच्चे हमेशा अपनी बुआ से हक से रोज जिद करते,ओर हमेशा उनके इर्दगिर्द रहते.
पापा ने तो कभी ध्यान ही नही दिया कुछ माँगते तो कह देते जाओ जाकर बुआ से कहो.
आभा ताई ख़ुशी-ख़ुशी रात को भी उनकी ख़्वाहिशों को पूरा करती थकती नही थी.
भैया-भाभी नौकरी पर जाते तो यह सारा घर का भार अपने कंधों पर ले जीती रही. कभी कोई शिकवा शिकायत नहीं की आभा ताई बहुत ही सोशल और मिलसार व वाचाल थी.
जो भी मिलता सभी से रुक-रुक कर बातें करना. उनकी दिनचर्या के सुख- दुख पूछना सब की जरूरत पड़ने पर मदद करना. क्यों ना हो..यही तो लोग थे जो आभा ताई से अपने बच्चों के लिए ट्यूशन लेते.इनसे संबंध नहीं बनाती तो जीवन की गाड़ी कैसे चलती भला.
समय चलते भाई के तीनों बच्चों की शादियां हो गई.भाई भी लिवर फेल हो जाने से जल्दी ही इस दुनिया से विदा हो गया था और दोनों लड़के अपने- अपने परिवार के साथ महानगरों में सेट हो गए थे.
अब नीति ही बची थी.नीति का पति नीति की मां और बुआ की जिम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार नहीं था.फिर भी नीति ने जिद करके अपनी मां के साथ-साथ अपनी बुआ को भी अपने पास रख लिया.
बुआ के पास कुछ जमा पूंजी थी. वह कहने लगी कि जो भी मुझे अपने पास रखेगा उसे ही मैं यह रकम दूंगी. पैसे की लालच के चलते नीति और नीलेश दोनों ने उन्हें अपने पास रखने का निर्णय लिया. शुरुआती दिनों में तो खूब आदर प्रेम से रखा आभा ताई बहुत खुश थी.सोचती की मेरे खुद के यदि बच्चे होते तो वह भी मुझे इतनी अच्छी तरह से नहीं रखते. शादी न करने का मलाल और नीति के व्यवहार में बेटी का प्यार पाकर फूली नहीं समाती.
नीति और नीलेश की खूब तारीफें करती थकती नहीं थी.
आभा ताई की भाभी का उनके साथ बहुत पटता की दुनिया ननंद भोजाई की जोड़ी को देख ऊपर वाले से दुआ करती कि हमें भी कोई ऐसा जोड़ीदार मिल जाए.
समय अपनी गति से चल रहा था. आज आभा ताई की उम्र 82 साल के आसपास थी.
लेकिन आज परिस्थितियां इस कदर बदल चुकी थी कि आभा ताई अपनी मौत का एक-एक दिन इंतजार कर रही थी. डायबिटीज की वजह से उनकी आंखों की रोशनी चली गई थी.
अंधआश्रमों में रखने के लिए नीति और नीलेश पूरे शहर की खाक छान चुके थे लेकिन हर जगह इतने पैसों की मांग थी कि उनकी हिम्मत ही नहीं हुई कि उन पर इतना खर्चा किया जाए उनका सारा पैसा अपने अकाउंट में रख उनकी जरूरतों पर थोड़ा बहुत खर्च होता.
अब जरूरतें बच्ची कहां थी. पहले साड़ी पहना करती थी.अब दो सादे गाउन पर आ गई थी.उन गाउन में से अब बदबू आने लगी थी. उन्हें ऊपर शिफ्ट कर दिया गया था. शुरुआती दिनों में तो भाभी ने देखभाल की. लेकिन अब उसने भी मुंह मोड़ लिया भाभी नीचे बैठी टीवी देखती रहती. सुबह थाली में दो रोटी सब्जी चाय पहुंचा दी जाती. रात को जब सब खाना खाते तो सबके बाद उनकी थाली ऊपर जाती.
कभी-कभी तो यह लोग उन्हें खाना देना ही भूल जाते कि कोई ऊपर बैठा भी है.बेचारी आंखो से अंधी हो चुकी थी.
वही पलंग के पास कुर्सी थी जिसमें वह पोटी करती थी. शुरू में खूब ध्यान रखा गया लेकिन अब तो खाने को भी कम मिलता तो दो-चार दिन में ही पोटी होती.
तेज बारिश में ईटों की झिरियों से पानी आता तो सारे कपड़े दीवानों से नमी सोख लेते बिस्तर भी सील जाता उसी पर रात गुजरती. सारी रात टप्पर पर पानी की आवाजें और नीचे टीवी की आवाजों में वह आवाज देती तो उनकी आवाज इन आवाजों में दबकर रह जाती.
जीवन एक श्राप की तरह गुजर रहा था उनकी स्थिति अब तो ओर भी बदसे बदतर हो गई थी.
उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था. वह इन्हीं लोगों पर आश्रित हो चुकी थी. अब तो वह एक सिर्फ हड्डियों का ढांचा मात्र बनकर रह गई थी. अंधत्व भी इंसान को कितना मोहताज बना देता है यह उन्हें वक्त ने महसूस करवा दिया था.
नीति तो सभी से यही कहती-"उनकी हालत देखी नहीं जाती, भगवान उन्हें उठा ही ले तो अच्छा हो, मैं तो रोज भगवान से यही प्रार्थना करती हूं.
ऐसी बातें करती और संडे की संडे उन्हें देखने ऊपर जाती और एक बाल्टी ठंडा पानी उन पर डाल देती उनके कपड़े बदल देती.और जैसे- तैसे कमरा साफ कर देती. ठंडी के मौसम में भी कभी गर्म पानी उन्हें नहीं मिलता. चाय मिलती वह भी जरा से कप में जो ऊपर आते-आते ठंडी हो जाती. कुछ पुराने स्वेटर शॉल भी उनके पास रखे थे उन्हें स्वेटर बनाने का भी बहुत शौक था एक शॉल उन्होंने बड़ी हसरत से अपने लिए बनाई थी लेकिन नीति को पसंद आई तो उन्होंने सहर्ष उसे वह शॉल दे दी. अब उनके पास रखे कपड़ों में से भी बदबू आने लगी थी. कौन धोएगा किसे इतनी फुर्सत सभी अपने-अपने कामों में व्यस्त रहते.
आभा ताई पड़े-पड़े आंसू बहाती उनके अश्कों को समझने वाला कोई नहीं था.
नीति मेरी सहेली थी,मैं कई सालों से इसी बिल्डिंग में रहती थी. नीति मुझसे मिलती और अपनी बुआ के बारे में बताती.
"नौकरी करो या उनकी देखभाल करो,मम्मी तो ऊपर जाती भी नहीं! "कहती है, वहां बदबू आती है, कौन जाए, मुझे समय नहीं मिलता मम्मी तो नाक बंदकर खाना दे आती हैं.
मैं भी कितना करूं, बच्चों की पढ़ाई ट्यूशन, मां को मैंने बुआ की देखभाल के लिए ही रखा था, लेकिन अब.. वह जिम्मेदारी उठाने को तैयार ही नहीं.
मैं बोली- "तुम इन्हें किसी अंधआश्रम में क्यों नहीं रखते, कम से कम वहां उनकी देखभाल तो हो जाएगी, और तुम लोग भी निश्चिंत हो जाओगे.
नीति कहती-"अरे नहीं रे,इतना पैसा नहीं है हमारे पास, जितना इनका था सब खर्च हो गया, अब अपनी जेब से कौन पैसा लगाएगा.
उसकी बातें सुन!
मैं बोली- "तो फिर.. तुम इन्हें यहां क्यों लेकर आई.
"अरे इन्होंने शादी नहीं कि, हमारे पापा की परिस्थिति ठीक नहीं थी तो उन्होंने हमें पढ़ाया लिखाया, उन्होंने हमारी सारी जरूरतों को पूरा किया, तो क्या हमारा फर्ज नहीं कि बुढ़ापे में उनकी देखभाल करें, इसी वजह से उन्हें रख रखा है.
"तो उनका कमाया हुआ पैसा तो रहा होगा..?,
मैंने प्रश्न किया!
हां उन्होंने चार लाख जोड़े थे,उसमें से हमने उन्हें ऊपर एक कमरा बनवा दिया और दवाई कपड़े खाने- पीने पर खर्च हो जाता है.आज 4 सालों से उनको रखा है अब हम उनके लिए और खर्च नहीं कर सकते, जैसा चल रहा है वैसा ही चलने दो, बेकार की फिजूलखर्ची का कोई मतलब नहीं है अब तो बस ऊपर वाला उन्हें उठा ले तो हम भी फ्री वह भी फ्री, अब उनकी देखभाल मुझसे तो नही होती उन्हें कहीं छोड़ भी नही सकते, लोग क्या कहेंगे कि पैसे लेकर छोड़ दिया।उनकी इस दशा की देख मैं भी उनकी मौत की दुआ मांगने लगी.
शाम को देखा तो नीति अपने बच्चों और पति के साथ गाड़ी में कही जाते दिखी मुझे ऊपर से आभा ताई की आवाज सुनाई दी कि वह कुछ मांग के लिये आवाज लगा रही है उनकी आवाज सुन नीति की माँ ने टी वी का वॉल्यूम ओर तेज कर दिया उनकी आवाज सिसकियां बन उस कमरें में ही दफन हो गई.
मैं इस दुःखद नजारे को खुली आंखों से देख रही थी. मेरे पास कोई उपाय नहीं था मैं ऊपर जाना चाह रही थी लेकिन मेरे कदम वही जड़ हो गए.सोचा अपना पैसा जीते जी अपने पास रखा होता तो आज उनकी यह दुर्दशा नहीं होती किसी पर भी भरोसा नहीं करो अन्यथा आभा ताई जैसी हालत में इंसान को घुट-घुट कर जीना पड़ेगा.
मुझे उनकी सिसकियां सुनाई दे रही थी मैं अपने आप को बहुत ही विवश महसूस कर रही थी. मेरा मन रो रहा था सोचा ऊपर जाकर एक बार उनसे मिल लू, मैं जीने चढ़ रही थी. आखरी जीने तक जाते-जाते बदबू से मेरा सिर चकराने लगा मैं दरवाजे तक पहुंची ही थी कि अचानक नीति की मां ने आवाज लगाई कौन है.?, मैं सहम कर दीवाल के सहारे नाक बंद कर खड़ी रही मेरा दम घुट रहा था. टूटे दरवाजे को हाथ लगाते ही वह आवाज करता मैं वापस जीने उतरने पर मजबूर हो गई लेकिन फिर भी मैंने हिम्मत करके चुपचाप दरवाजा खुला डिम लाइट में कंकाल की तरह आभा ताई का शरीर देख मैं डर गई कदमों की आहट सुन वह बोली कौन कोई है वहां...?,
"क्या मुझे थोड़ा पानी मिलेगा..?
मैं खामोश रही और खुले दरवाजे को छोड़ चोर कदमों से नीचे आई उनके लिए एक बोतल पानी और गर्म दूध में रोटी चूर कर नाक को कपड़ा बांध उन्हें चुपचाप खिलाई आई. उनका दर्द तो नहीं बांट सकती थी नाही सबके सामने उनकी कोई मदद कर सकती थी.
चोरी छुपे जितना हुआ उतना ही कर वापस चुपचाप लौट आई.
लेकिन मेरे आंखों से नींद कोसों दूर थी मैं उनका बुढ़ापा देख अंतर्मन तक कांप उठी और ऊपर वाले से दया की भीख मांगने लगी कि उन्हें जल्दी ही अपने पास बुला कर मुक्त कर दो. शायद यही प्रार्थना आज उनके लिए उचित थी.