सत्ताधारी ही हुए ज्यादतर सफल
प्रदीप श्रीवास्तव
देश के 14 राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में 29 विधानसभा और तीन लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के जो नतीजे आए हैं, उनके आधार पर कोई बड़ी तस्वीर नहीं बनायी जा सकती, क्योंकि इन उपचुनावों के नतीजों से स्पष्ट है कि जो पार्टी जहां सत्ता में काबिज है, ज्यादातर जगहों में उसी के पक्ष में नतीजे आये हैं। हां, हिमाचल और कर्नाटक में भाजपा के लिए थोड़ी चिंता दिखती है और कांग्रेस को थोड़ा लाभ मिलता लग रहा है। लेकिन एक तो ये दोचार सीटों के छुटपुट नतीजे हैं, जिनके आधार पर पूरे प्रदेश या क्षेत्र के मूड को भांपना जल्दबाजी होगी। दूसरी बात आजकल मतदाता सीट दर सीट, चुनाव दर चुनाव नतीजों के फायदे नुकसान की समीक्षा करता है और उसी के आधार पर वोट डालता है। मतदाता चूंकि जानते थे कि इन दोचार सीटों से सत्ता में कोई परिवर्तन या निर्णायक संदेश नहीं दिया जा सकता, इसलिए उन्होंने वोट डालते समय किसी बड़ी तस्वीर या निष्कर्ष की परवाह नहीं की, सिर्फ अपने निजी क्षेत्र और सेंटीमेंट के आधार पर वोट डाले हैं।
लब्बोलुआब यह कि है कि इन उपचुनावों से न तो कांग्रेस को बहुत खुश होने की छूट है और न ही भाजपा से परेशान होने की अपेक्षा है। बावजूद इसके राजनीति में छोटा से छोटा फैसला भी किसी दिशा की तरफ इशारा तो करता है, लेकिन अगर उपचुनावों की सम्पूर्णता में कोई तस्वीर बनाएं तो नतीजे किसी खास दिशा की ओर इशारा नहीं कर रहे। मसलन जहां पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और हिमाचल में कांग्रेस के पक्ष में आये नतीजे उलटफेर करते लग रहे हैं, वहीं असम, मध्य प्रदेश, उत्तर-पूर्व और तेलंगाना में भाजपा ने अपने को मजबूत किया है। इन क्षेत्रों में भाजपा और उसके सहयोगी दलों ने न सिर्फ अपनी पुरानी स्थिति को बरकरार रखा है बल्कि उसे और मजबूत किया है।
ऐसे में किसी दिशा वाहक निष्कर्ष में पहुंचना मुश्किल है। हम यह नहीं मान सकते कि देश में भाजपा के विरूद्ध और कांग्रेस के पक्ष में हवा बह रही है। क्योंकि अगर हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक और बंगाल में भाजपा का प्रदर्शन बहुत कमजोर कहा जा सकता है तो उत्तर पूर्व में भाजपा और उसके सहयोगी दलों में जिस तरह से स्वीप किया है, उसके क्या मायने निकाले जाएं? इसी तरह अगर कांग्रेस के लिए हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक में स्थिति बेहतर है तो फिर उत्तर पूर्व में उसकी दयनीय हालत को लेकर क्या कहें? कर्नाटक में कांग्रेस ने जरूर वर्तमान मुख्यमंत्री बीएस बोम्मई के गृह जिले में सीट जीतकर बड़ा झटका दिया है। लेकिन असम में उसके लिए ज्यादा उम्मीद बंधती लग रही थी, वहां उसे निराशा हाथ लगी है।
अगर बिहार की बात करें तो सत्तारूढ़ जनता दल ने मजबूत प्रदर्शन किया है। जबकि राष्ट्रीय जनता दल (राजद) जिसके बारे में उम्मीद की जा रही थी कि लालू की मौजूदगी में शायद वह पिछले चुनावों से बेहतर प्रदर्शन करेगी, लेकिन मतदाताओं ने बता दिया है कि फिलहाल उनके लिए लालू का कोई आकर्षण नहीं। दादरा और नगर हवेली, शिवसेना के लिए महाराष्ट्र के बाहर पहली लोकसभा सीट बन गई है। इस तरह देखा जाए तो लगता है महाराष्ट्र में लोगों को शिवसेना की मौजूदा सरकार रास आ रही है। जबकि हरियाणा में इंडियन नेशनल लोक दल (इनेलो) के अभय चैटाला ने तीन विवादास्पद केंद्रीय कृषि कानूनों का विरोध करने के लिए खाली की गई सीट को वापस जीत लिया है, जो इस बात का सबूत है कि हरियाणा में केंद्र और राज्य सरकार द्वारा किसानों के साथ किया जा रहा व्यवहार लोगों का पसंद नहीं आ रहा।
उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में अगले साल की शुरुआत में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले इन उपचुनावों में भाजपा और उसके सहयोगियों दलों ने मिलकर 16 विधानसभा सीटें और एक लोकसभा सीट पर जीत हासिल की। तो दूसरी तरफ कांग्रेस ने आठ विधानसभा सीटों और एक लोकसभा सीट पर जीत हासिल की। अन्य विपक्षी दलों ने छह विधानसभा और एक लोकसभा सीट जीती है। अगर उपचुनावों के नतीजों को इस समीकरण के आइने में देखें तो निःसंदेह इसमें सिर्फ कांग्रेस को फायदा होता दिख रहा है बाकी सभी पार्टियां अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र को बचाने में लगी दिख रही हैं। वैसे एक बात यह भी सही है कि इन उपचुनावों का विश्लेषण क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों और भाजपा तथा कांग्रेस की त्रिकोण के आधार पर करने का कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि क्षेत्रीय पार्टियां कितनी भी मजबूत हो जाए, वह अपने एक निश्चित दायरे से बाहर नहीं आ पाती। जबकि राष्ट्रीय पार्टियां थोड़े कम फायदों के बावजूद अगर आखिल भारतीय स्तर पर मौजूद हैं तो वो कहीं ज्यादा मजबूत साबित हो सकती हैं।
इस लिहाज से इन उपचुनावों को वास्तव में हमें भाजपा और कांग्रेस के बीच के मुकाबले के रूप में ही देखना चाहिए और मुकाबले की इस क्लोजअप में फिलहाल कांग्रेस थोड़ी बेहतर स्थिति में दिख रही है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा के मतदाता किसी हद तक राजनैतिक विचारधारा के प्रति संवेदनशील हैं। इसलिए यह जरूरी नहीं है कि उपचुनावों में उन्होंने जिस तरह भाजपा के उम्मीदवारों को वोट देने में कोताही बरती है, वही सिलसिला अगले लोकसभा या आगामी पांच विधानसभाओं के लिए होने वाले पूर्ण चुनावों के दौरान भी जारी रखे। हिमाचल प्रदेश में उपचुनाव के लिहाज से कांग्रेस ने जबरदस्त सफलता हासिल की है। लेकिन जरूरी नहीं है कि कांग्रेस की जीत का यह सिलसिला हिमाचल के आगामी विधानसभा चुनाव में भी या कि लोकसभा चुनाव में भी बना रहे।
इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि इन चुनाव में कांग्रेस ने अपनी ताकत दिखायी है और भाजपा को लोगों ने सबक सिखाया है। सच बात तो यह है कि इन उपचुनाव के बाद भी अनुमानों की वही स्थिति बनी हुई है, जो स्थिति उपचुनाव के पहले थी। सिर्फ कांग्रेस पर ही नहीं भाजपा पर भी यह बात लागू होती है। भले फिलहाल असम और उत्तर-पूर्व भाजपा और उसके सहयोगियों के खाते में जाते लग रहे हों, लेकिन अभी ये चार राज्यों की कुल 10 विधानसभा सीटों के नतीजों की बात थी। जब पूर्ण चुनाव होंगे, तब पता चलेगा कि वास्तव में किसका डंका बजेगा?