
आतंकियों के नापाक मंसूबों को हवा
विजय कपूर
अक्टूबर के पहले सात दिन में कश्मीर में सात नागरिकों की चुनकर और बिना चेतावनी के हत्या की गई। इसके बाद 11 अक्टूबर को एक जेसीओ सहित पांच सैनिक शहीद हुए, जोकि मई 2020 के बाद एक दिन में सेना का सबसे बड़ा नुकसान है। इन हत्याओं की जिम्मेदारी द रेजिस्टेंस फोर्स (टीआरएफ) ने ली है। 5 अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त होने के नौ माह बाद इस संगठन का जन्म हुआ था। हालांकि यह आतंकी संगठन सुरक्षाकर्मियों व नागरिकों दोनो को ही टारगेट कर रहा है, लेकिन इसके बारे में कम ही जानकारी उपलब्ध है। टीआरएफ का नाम सबसे पहले उस समय सामने आया था, जब कुपवाड़ा के केरन सेक्टर में नियंत्रण रेखा (एलओसी) के निकट 1 अप्रैल 2020 से चार दिन तक गोलीबारी रिपोर्ट की गई थी।
बहरहाल, इन सनसनीखेज वारदातों (जिनकी संख्या पहले की तुलना में काफी कम है) के बाद ये खबरें आ रही हैं कि कुछ लोग अपना बोरिया-बिस्तर बांधकर घाटी से पलायन कर रहे हैं, भले ही वे अस्थायी रूप से ही ऐसा क्यों न कर रहे हों। इसके साथ ही कश्मीरी पंडित समुदाय के सरकारी कर्मचारी छुट्टी पर चले गये हैं व घाटी पर अपने रहने या न रहने के विकल्पों पर विचार कर रहे हैं। इन खबरों के आधार पर मीडिया का एक वर्ग यह निष्कर्ष निकाल रहा है कि जम्मू कश्मीर एक बार फिर नब्बे के दशक में लौट रहा है। वास्तव यह निष्कर्ष तथ्यों पर नहीं बल्कि सनसनी फैलाने की प्रवृत्ति पर आधारित है, जिसमें हर रंग के कट्टरपंथी राजनीतिक तत्व, निरंतर झूठ फैलाने में लगा मीडिया का एक वर्ग और सोशल मीडिया पर पक्षपाती ट्रॉल्स आग में घी डालने का काम कर रहे हैं।
जबकि तथ्य यह है, जैसा कि इंस्टिट्यूट ऑफ कनफ्लिक्ट मैनेजमेंट एंड साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर अजय सहानी का कहना है, ‘डाटा से यह संकेत नहीं मिलते हैं कि जम्मू कश्मीर में आतंकी गतिविधियों में इजाफा हुआ है या तालिबान के कारण स्थिति में कोई अंतर आया है।’ अजय सहानी के मुताबिक, “(घाटी के घटनाक्रम के बारे में) जो कुछ लिखा गया है उसमें से अधिकतर में कोई डाटा नहीं है, ट्रेंड्स की ऑब्जेक्टिव समीक्षा नहीं है, घटनाओं का केवल अत्याधिक विवरण है और उनके कथित महत्व पर बढ़ा चढ़ाकर अनुमान हैं।” गहराई से देखें तो अजय सहानी का यह निष्कर्ष बिल्कुल सही लगता है कि घाटी में हाल में हुई घटनाओं पर मीडिया के एक वर्ग ने खासी पक्षपाती रिपोर्टिंग की।
अक्टूबर के पहले सप्ताह में सात टार्गेटेड हत्याएं हुईं, जिनमें से एक स्कूल के सिख प्रधानाचार्य व हिन्दू टीचर, एक मेडिकल स्टोर के कश्मीरी पंडित मालिक व एक बिहारी प्रवासी मजदूर की हत्याओं पर फोकस करके मीडिया ने यह प्रचार किया कि कश्मीर में गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों की टार्गेटेड हत्याएं हो रही हैं जबकि इनके साथ तीन मुस्लिमों की भी हत्याएं की गई थी, जिनके साथ मीडिया एक धरा खमोश रहा। गौरतलब है कि जम्मू कश्मीर में पुलिस डाटा के अनुसार 2021 में आतंकियों ने 28 नागरिकों की हत्याएं की हैं, जिनमें से 21 मुस्लिम हैं। सहानी कहते हैं, ‘यह जानबूझकर ध्रुवीकरण का प्रयास है जिससे दोनों अतिवादी (इस्लामी व हिन्दुत्ववादी) तत्वों को तो लाभ होता है; क्योंकि एक समुदाय को दूसरे समुदाय के खिलाफ खड़ा कर दिया जाता है, लेकिन इससे राष्ट्र हितों को निरंतर नुकसान पहुंचता रहता है। जम्मू कश्मीर एक संवेदनशील समस्या है जिसके समाधान में तथ्यपरक रिपोर्टिंग व सूचनाओं से तो मदद मिल सकती है, लेकिन पक्षपाती रिपोर्टिंग, जिसमें साम्प्रदायिकता व सनसनी का अंश हो, से केवल नुकसान की ही आशंका है।
अफगानिस्तान में 15 अगस्त 2021 को तालिबान के हाथ में सत्ता आ गई। तब से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक वर्ग निरंतर इस प्रचार में लगा हुआ है कि तालिबान की वजह से जम्मू कश्मीर में आतंकी गतिविधियां बढ़ गई हैं या बढ़ जायेंगी। यह प्रचार भी डाटा या तथ्यों पर आधारित नहीं है, न ही जमीनी स्थिति का वास्तविकता-आधारित मूल्यांकन है। साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल डाटा के अनुसार अगस्त 2021 में जम्मू कश्मीर में कुल 24 व्यक्ति मारे गये, 8 व्यक्ति 1 से 15 अगस्त के बीच में और 16 व्यक्ति 16 से 31 अगस्त के बीच में। सनसनी फैलाने या निहित स्वार्थ के लिए इस डाटा की आसानी से यह व्याख्या की जा सकती है कि काबुल में तालिबान के आते ही जम्मू कश्मीर में हत्याएं दोगुनी हो गईं। लेकिन बारीक समीक्षा करने पर मालूम होता है कि अगस्त के पहले पखवाड़े में दो नागरिक, एक सुरक्षाकर्मी व 5 आतंकी मारे गये और दूसरे पखवाड़े में दो नागरिक, एक सुरक्षाकर्मी व 13 आतंकी मारे गये।
अब इस डाटा से सुरक्षा बलों की बढ़ी सक्रियता का संकेत मिलता है न कि तालिबान के कारण आतंकवाद में हुई वृद्धि का। इसी तरह 15 अगस्त से पहले के जो 56 दिन थे उनमें 6 नागरिक, 7 सुरक्षाकर्मी व 48 आतंकी मारे गये। इस तरह 16 अगस्त से 11 अक्टूबर के 56 दिनों में 11 नागरिक, 9 सुरक्षाकर्मी व 27 आतंकी मारे गये। इस डाटा से भी यही संकेत मिलता है कि काबुल में तालिबान के आने के बाद जम्मू कश्मीर में आतंक कम हुआ है। हद तो यह है आतंकियों को मार गिराने में भी कमी आयी है। दरअसल, जो लोग यह कह रहे हैं कि जम्मू कश्मीर में नब्बे का दशक लौट रहा है, वह सनसनी के लिए सिर्फ लफ्फाजी कर रहे हैं या उनका कोई ऐसा छुपा हुआ एजेंडा है जो हमें नहीं मालूम। 1990 से 2006 का डाटा देखने से मालूम होता है कि इन 15 वर्षों में से 12 में हर साल आतंक-संबंधी हत्याओं की संख्या 2000 से अधिक थी और शेष 3 वर्षों में 3000 से अधिक। साल 2001 में तो 4,011 हत्याएं हुई थीं।
लेकिन 2021 में 11 अक्टूबर तक मारे गये लोगों की संख्या 188 है। इसलिए कम से कम डाटा के आधार पर तो यह नहीं कहा जा सकता कि जम्मू कश्मीर में नब्बे का दशक लौट आया है। जो लोग यह कह रहे हैं कि जम्मू कश्मीर से कश्मीरी पंडित पलायन कर रहे हैं, उन्होंने अभी तक यह नहीं बताया है कि कितने पंडित घाटी से देश के किस हिस्से में गये हैं। इस संदर्भ में कोई सरकारी डाटा भी नहीं है। सब बातें हवा में हो रही हैं। इसके बावजूद इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि घाटी में नागरिकों की टार्गेटेड हत्याएं चिंता का विषय हैं। लेकिन साथ ही यह भी तथ्य है कि इन हत्याओं के बाद सुरक्षाबलों के प्रयास पहले से अधिक बढ़ गये हैं, जैसा कि वांटेड जैश कमांडर शम्स सोफी के पुलवामा में मार गिराये जाने और विभिन्न आतंकी संगठनों के पांच अन्य सदस्यों की गिरफ्तारी से स्पष्ट है। दरअसल, जरूरत इस बात की है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पक्षपाती सनसनी न फैलाये। उसके ऐसा करने से आतंकियों के नापाक मंसूबों को ही हवा मिलती है और यह आशंका बढ़ जाती है कि पिछले कुछ वर्षों में जम्मू कश्मीर में हालात बेहतर करने में जो सफलता मिली है, वह गुड़ गोबर हो सकता है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया को अपनी जिम्मेदारी समझने की आवश्यकता है।
( इसमें दिए गए सभी तथ्य और विचार लेखक के निजी हैं।)