दलों के आलाकमान ने थोप दिए दो मुख्यमंत्री
हाल ही में दो राज्यों में मुख्यमंत्री बदले गये। बीजेपी ने गुजरात में विजय रुपाणी की जगह भूपेंद्रभाई पटेल को मुख्यमंत्री बनाया और कांग्रेस ने पंजाब में केप्टन अमरिंदर सिंह का स्थान चरणजीत सिंह चन्नी को दिया। इन परिवर्तनों की अलग अलग तरह से समीक्षा की गई है। गुजरात के सिलसिले में कहा गया कि कोविड-19 की दूसरी लहर में लचर स्वास्थ्य व्यवस्था के कारण असरदार पटेल समुदाय बीजेपी से बहुत नाराज था, यह नाराजगी जल्द होने जा रहे विधानसभा चुनाव में उसके लिए हानिकारक हो सकता थी। इसलिए एक पटेल को ही मुख्यमंत्री बना दिया गया। पंजाब में प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के नेतृत्व में अधिकतर कांग्रेसी विधायक केप्टन के विरोध में थे, लेकिन केप्टन ने सिद्धू और इमरान खान (पाकिस्तान के प्रधानमंत्री) की दोस्ती का मुद्दा उठाकर ऐसी स्थितियां उत्पन्न कर दीं कि फिलहाल सिद्धू मुख्यमंत्री नहीं बन सकते थे, इसलिए समझौते के तौरपर चन्नी को कुर्सी मिल गई।
हालांकि इन परिवर्तनों के कारण और भी हैं, लेकिन इनकी समीक्षा करते हुए दो मुख्य वजहों को अधिकतर अनदेखा किया गया है। एक, राजनीतिक पार्टियों के आला कमानों में बढ़ती तानाशाही प्रवृत्ति। दो, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि आवश्यक मुद्दों को एक किनारे करके केवल जाति समीकरण (विशेषकर दलित वोटों) के आधार पर चुनावी रणनीति बनाना। गौरतलब है कि इस साल असम, कर्नाटक, उत्तराखंड (दो बार), गुजरात व पंजाब में जो सत्तारूढ़ पार्टियों ने अपने अपने मुख्यमंत्री बदले हैं, उनमें इंदिरा मॉडल स्पष्ट दिखायी दे रहा है। इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए अपने कार्यकाल के दौरान 50 बार राज्य के मुख्यमंत्रियों को बदला था। वह अपनी पार्टी को एक तानाशाह की तरह चलाती थीं, जिससे ‘आला कमान’ शब्द चलन में आया और राजनीति करने का यह तरीका ‘इंदिरा मॉडल’ कहलाया।
अब इस मॉडल को लगभग सभी राजनीतिक दलों ने अपना लिया है। इनमें मोदी-शाह के नेतृत्व में बीजेपी ने इसे परफेक्ट कर लिया है, जबकि इसकी असल वारिस कांग्रेस इसे लेकर संघर्ष करती हुई प्रतीत हो रही है। अगर गौर से देखा जाये तो बीजेपी इंदिरा गांधी के दौर की कांग्रेस हो गई है जब ‘आला कमान’ ही सर्वेसर्वा हुआ करता था और कांग्रेस वाजपयी-अडवाणी के दौर की बीजेपी हो गई है, जब राज्य के मुख्यमंत्री या क्षेत्रीय नेता अधिक मजबूत हुआ करते थे। आज बीजेपी के मुख्यमंत्री आला कमान की इच्छा तक पद पर हैं और कांग्रेस का आला कमान अपने मुख्यमंत्रियों या पार्टी अध्यक्षों पर निर्भर है।
बहरहाल, अन्य पार्टियां भी आला कमान मॉडल को अपनाये हुए हैं। आम आदमी पार्टी में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के पास वीटो पॉवर है, जो वो चाहेंगे वही होगा। अगर यकीन नहीं तो प्रशांत भूषण व योगेन्द्र यादव से मालूम कर लीजिये कि पार्टी के संस्थापक सदस्य होने के बावजूद उन्हें दूध में से मक्खी की तरह निकाल दिया गया। तृणमूल कांग्रेस में ममता बनर्जी, जनता दल(यू) में नितीश कुमार, बसपा में मायवती, राष्ट्रीय जनता दल में लालू प्रसाद यादव, समाजवादी पार्टी में अखिलेश यादव, द्रमुक में एमके स्टालिन, बीजू जनता दल में नवीन पटनायक, तेलंगाना राष्ट्र समिति में के चन्द्रशेखर राव... हद तो यह है कि केरल के वामपंथी मुख्यमंत्री पी. विजयन भी आला कमान संस्कृति को अपनाये हुए हैं कि उन्होंने अपनी 2021 की जीत के बाद पूरा कैबिनेट ही बदल दिया और पार्टी का पोलितब्यूरो मन मसोसने के अतिरिक्त कुछ न कर सका।
पार्टियों द्वारा तानाशाही आला कमान मॉडल अपनाना लोकतंत्र के हित में नहीं है। शायद यही वजह है कि निरंतर बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, कोविड महामारी में एक्सपोज हुई लचर स्वास्थ्य व्यवस्था, अनेक राज्यों में रहस्यमय बुखार का प्रकोप, किसानों की आत्महत्याएं आदि ज्वलंत मुद्दों को छोड़कर राजनीतिक पार्टियां सत्ता में बने रहने या आने के लिए जातिगत समीकरण ही बना रही हैं, विशेषकर पांच राज्यों में जो जल्द विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं उन्हें मद्देनजर रखते हुए। 27 ओबीसी सांसदों को मंत्री बनाना या नीट में ओबीसी आरक्षण का संबंध पहचान की राजनीति से ही है, जिस पर काफी लिखा जा चुका है, इसलिए दोहराने की जरूरत नहीं। अब दलित वोटों के लिए घमासान हो रहा है।
बीजेपी ने काबिना व मुख्यमंत्री नियुक्तियों से प्रभावी समुदायों व ओबीसी को आकर्षित किया तो कांग्रेस भी पंजाब में एक दलित (चरनजीत सिंह चन्नी) को मुख्यमंत्री बनाकर सोशल इंजीनियरिंग के चुनावी खेल में शामिल हो गई है। 2003-04 में महाराष्ट्र में सुशील कुमार शिंदे कांग्रेस की तरफ से पहले दलित मुख्यमंत्री थे। चन्नी को मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस न सिर्फ पंजाब के आगामी विधानसभा चुनाव में राज्य के 32 प्रतिशत दलित मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करना चाहती है बल्कि वह राष्ट्रीय स्तर पर एक नया दलित आइकॉन खड़ा करना चाहती है ताकि उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड, जहां जल्द चुनाव होने जा रहे हैं, के क्रमशः 20.8 प्रतिशत व 18.7 प्रतिशत दलित मतदाताओं में अपनी पकड़ मजबूत बना सके। इससे बसपा को अपने आधार में सेंध लगते हुए प्रतीत हो रहा है। इसलिए मायवती ने इसको ‘अवसरवादी राजनीति’ कहते हुए आलोचना किया है।
लेकिन आज दलित वोटों के अनेक दावेदार हैं। कांग्रेस के जो सुधारवादी प्रयास थे जैसे 15 प्रतिशत आरक्षण और एससी/एसटी अत्यचार (निरोधक) कानून, 1989, अब वह समकालीन याद के लिए पुराने पड़ गये हैं। हिंदी पट्टी में बढ़ते समाजवादी प्रभाव के दौरान तो कांग्रेस अपने दलित वोट को सुरक्षित रखने में कामयाब रही थी, लेकिन उत्तर प्रदेश में बसपा के प्रवेश के कारण वह अपने दलित वोट को अपने पास न रख सकी। कांशीराम ने अलग अलग समय पर अलग अलग पार्टियों से गठजोड़ करके अपने आधार का विस्तार किया और आखिरकार दलितों को दिखाया कि उनकी भी अपनी एक राजनीतिक पार्टी है और वह संख्या बल पर स्वयं भी सियासी सत्ता हासिल कर सकते हैं।
लेकिन उनका अखिल भारतीय सपना साकार न हो सका। मायावती दलित सफलता को उत्तर प्रदेश के बाहर न दोहरा सकीं। प्रमुख पार्टियां बसपा की गठजोड़ इच्छा से किनारा करने लगीं, जब तक कि मजबूरी ही न हो जाये जैसा कि अब अकाली दल कर रही है। बसपा डगमगाने लगी तो आरएसएस अपने सांस्कृतिक प्रोजेक्ट व बीजेपी अपने प्रशासनिक संरक्षण से हाशिये पर पड़े दलित समुदायों को आकर्षित करने लगी। आपके प्रति गरीब दलितों का प्रारम्भिक आकर्षण उसका ‘झाड़ू’ चुनाव चिन्ह था, जिसका उसने मुफ्त बिजली व पानी, अच्छी सार्वजनिक शिक्षा व फूलप्रूफ राशन डिलीवरी से दिल्ली में विस्तार किया, जहां 17 प्रतिशत दलित जनसंख्या है।
इस बीच दलितों के नये नेता जैसे चन्द्रशेखर आजाद व जिग्नेश मेवानी प्रासंगिकता के लिए संघर्ष कर रहे हैं। सियासी दलों को दलितों के आंतरिक विभाजन का भी सामना करना पड़ रहा है, जैसे उत्तर प्रदेश में जाटव-गैरजाटव, कर्नाटक में चलावाडी-मडिगा, तमिलनाडु में पल्लार-परियार-अरुणधतियार, आंध्र में माला-मडिगा आदि। इस पृष्ठभूमि में अगर कांग्रेस चन्नी के नेतृत्व में पंजाब जीत जाती है और उन्हें बाद में भी मुख्यमंत्री बने रहने देती है तो निश्चितरूप से 2024 में तो यह बड़ा प्रभावी मुद्दा होगा।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)