न्याय की भाषा अंग्रेजी का नुकसान आम आदमी को
अरविंद जैन
अगर बिना किसी भूमिका के मुझसे यह सवाल पूछा जाए कि न्याय पाने के संदर्भ में अंग्रेजी भाषा कितनी बड़ी बाधा है, तो मैं कहूंगा 99 फीसदी। संविधान में हिंदी को राजभाषा बनाने के लिए कहा गया था। इसका मकसद यही था कि आजादी के बाद हिंदी न्याय की भाषा भी होगी, लेकिन नहीं हुई। सुप्रीम कोर्ट ने कभी माना नहीं, हाईकोर्ट ने कभी माना नहीं। सवाल है फिर राजनेताओं ने क्या किया? आजादी की लड़ाई के तमाम बड़े राजनेता चंूकि सबके सब अंग्रेजीदा थे, शायद इसलिए आजादी की लड़ाई के तमाम सारे दस्तावेज में एक भी दस्तावेज हिंदी में नहीं मिलेगा। बाद में अनुवाद हुआ हो तो अलग बात है। संविधान तक अंग्रेजी में लिखा गया है और सारे कानून हमने अंग्रेजी से ही उधार लिये है। बाद में भी बने हैं तो पहला ड्राफ्ट अंग्रेजी में बना है।
नेताओं को अंग्रेजी आती हो या न आती हो या फिर वो चाहे अनपढ़ ही क्यों न हों, लेकिन उन्हें अंग्रेजी से दिक्कत नहीं होती, क्योंकि तमाम नीतियां और कानून को ड्राप्ट तो आईएस ही करते हैं और वे सबके सब अंग्रेजीदां हैं। हिंदी में तो न्याय की शब्दावली भी नहीं बनी। मुझे अगले सौ सालों तक भी उम्मीद नहीं लगती कि न्याय की भाषा हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाएं होंगी। सारी सामाजिक सुधार की भाषा या राजनीतिक भाषा, ये होना चाहिए, वो होना चाहिए, हमको ये करना होगा, वो करना पड़ेगा, ऐसा जब तक नहीं होगा, वैसा तब तक कैसे होगा? अगर-मगर, किंतु-परंतु, की यह बहुत लंबी सूची है। दरअसल जो सत्ताधारी वर्ग के वर्चस्वशाली लोग हैं, जो सत्ता चलाते हैं, जो सत्ता के ठेकेदार हैं, वो सारे के सारे उच्चवर्ग के अंग्रेजी पढ़े लिखे लोग हैं और वो इसे बचाए, बनाए रखना चाहते हैं।
न्याय की भाषा जब तक अंग्रेजी है, तब तक आम आदमी को यह पता ही नहीं चलेगा कि मेरे बारे में क्या लिखा गया है? क्या बोला जा रहा है या क्या फैसला हुआ? अन्याय का सबसे बड़ा कारण यही भाषा है। जिस दिन न्याय की भाषा आम लोगों की भाषा हो जायेगी, उस दिन आम जनता सवाल करेगी, सवालों के जवाब देने पड़ेंगे और तब ये अन्याय इस तरह से नहीं हो सकता, जिस तरह से आज हो रहा है। दरअसल ये मूलतः वर्गहित की बात है। एक खास किस्म का ग्रुप है- वकीलों का, न्यायधीशों का, जो अंग्रेजी के इस वर्चस्व को बचाए, बनाए रखना चाहता है। इसी में उसका हित है। इसी की वजह से उसे हर पेशे के लिए लाखों रुपये की फीस पर पेशी मिलती है। इसी से उसके बेटे, उसकी बेटियां, उसके दामाद, उसके भाई, उसके भतीजे, हाईकोर्ट के जज बनेंगे, सुप्रीम कोर्ट के जज बनेंगे। आप देख लीजिए तकरीबन 50 फीसदी नियुक्तियां जो हैं या आजतक हुई है, वे वकीलों या न्यायधीशों की संतानें हैं।
यह संयोग नहीं है कि भगवती का बेटा चीफ जस्टिस बने। चंद्रचूड़ का बेटा चंद्रचूड़ चीफ जस्टिस बने और वेंकटारमैय्या की बेटी 2027 में (जो हालांकि 36 दिन के लिए चीफ जस्टिस बनेगी), चीफ जस्टिस बने। ये एक नई परंपरा शुरु होगी कि चीफ जस्टिस का बेटा/बेटी ही चीफ जस्टिस बनेगा। जबकि ऐसा नहीं है कि न्याय की भाषा हिंदी या भारतीय भाषाएं नहीं हो सकतीं। ये तो एक राजनीतिक इच्छा-शक्ति की बात है और जब भी न्याय की भाषा हिंदी या भारतीय भाषा बनेगी तो वे राजनीतिक इच्छा-शक्ति से ही बनेगी। सिर्फ जन दबाव से यह सब नहीं हो सकता। हर 15 अगस्त को लालकिले से बोलने वाला भारत का प्रधानमंत्री अंग्रेजी में नहीं बोल सकता, उसे भाषण हिंदी में ही देना पड़ेगा।
जो हिन्दू, हिंदी, हिंदुस्तान वाले लोग हैं और चाहते भी हैं कि हिंदी हो और फिलहाल सत्ता में भी हैं। लेकिन उनके साथ सबसे बड़ी समस्या ये है कि उनके पास कोई ऐसा बड़ा नेता नहीं है, जो दक्षिण के राज्यों में हिंदी बोल सके। कर्नाटक में, तमिलनाडु में, केरल में या कि पश्चिम बंगाल में। दरअसल हिंदी के लिए कोई जन दबाव नहीं है। राजनेताओं को कोई फर्क नहीं पड़ता और नौकरशाह इसके बिना मौज में हैं। राज करने वाले 500-700 परिवार हैं, जिन्हें अंग्रेजी ही लाभदायक लगती है। देश की किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं रहा। यहां तक कि कांग्रेस के लिए भी कभी यह नहीं रहा कि देश की राजभाषा हिंदी हो। हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान का नारा भाजपा का है, लेकिन सत्ता में आने के बाद इन्होंने भी कुछ नहीं किया क्योंकि कर ही नहीं सकते थे। प्रतीक के तौरपर प्रधानमंत्री बाजपेयी ने यूएनओ में हिंदी में भाषण दे दिया, साथ में अंग्रेजी का अनुवाद था। लेकिन प्रतीकात्मक तौरपर हम भाषा का इस्तेमाल करें उससे तो बात नहीं बनेगी।
दरअसल भाषा का इतना गहरा जाल जंजाल है कि तमाम छोटे मोटे नेताओं के लिए तो इसे तोड़ना संभव ही नहीं है और फिर ये बात भी है कि तमाम वो नेता भी जो हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं के पक्षधर हैं, वे भी सत्ता में आकर अंग्रेजी बोलते हैं। भले टेलीप्राॅम्टर का सहारा लेते हांे। आप देख ही सकते हैं कि कई लोग कैसे ये सब कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ही कई बार अंग्रेजी में बोलते हैं। क्योंकि सब कुछ सामने टेलीप्राॅम्टर में आता रहता है। लेकिन भाषा के संबंध में और भी कई तरह की बाधाएं हैं मसलन- मैंने स्कूल में थोड़ी बहुत हिंदी पढ़ी है, पंजाबी मेरी मातृभाषा है। लेकिन पढ़ाई लिखाई अंग्रेजी में की है। और चूंकि वकालत दिल्ली मंे की है, तो अंग्रेजी में ही करनी पड़ी है। शुरुआत में मैंने अंग्रेजी में लिखना शुरु किया। मेनस्ट्रीम और फाइनेंशियल एक्सप्रेस जैसी पत्रिकाओं और अखबारों में लिखा। लेकिन जल्द ही समझ मंे आ गया कि जिनके लिए लिख रहे हैं, जो लिख रहे हैं, उसका अंग्रेजी से क्या लेना देना? इसलिए मैंने अपने को हिंदी मंे लिखना शुरू किया और 80 के दशक से ही हिंदी मंे लिख रहा हूं।
कहने का मतलब यह कि अगर हम चाहें तो सब संभव है। हालांकि मैं इसे कोर्ट की मजबूरी नहीं कहूंगा, लेकिन फिर भी बनी हुई है। रिवाज है कि अंग्रेजी में ही बहस होगी। अब इस रिवाज को कौन तोड़े? इस रिवाज को देश की राजनीतिक इच्छा-शक्ति ही तोड़ सकती है। सुप्रीम कोर्ट का कहना यह भी है कि हिंदी कैसे कर दें, हमें एक ऐसी भाषा चाहिए जो सारे राज्यों के न्याय पाने वालों के लिए सुनवाई कर सके। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के पास मलयाली मामले भी आ रहे हैं, बंगाली मामले भी आ रहे हैं। अब एक भाषा तो चाहिए न, जो सबके लिए समान हो। इसलिए सुप्रीम कोर्ट अंग्रेजी की पूछ पकड़े हुए है। ये तथ्य है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में भले न हो, हाईकोर्ट में तो हो सकता है। हाईकोर्ट में हिंदी या उस राज्य की आम लोगों की भाषा न्याय की भाषा तो बन ही सकती है। केरल में मलयालयम हाईकोर्ट की भाषा आखिर क्यों नहीं हो सकती? डिस्ट्रिक्ट कोर्ट मंे अगर क्षेत्रीय भाषा वहां की कामकाजी भाषा हो सकती है, तो हाईकोर्ट में भी हो सकती है, कानून की पढ़ाई भी स्थानीय भाषा मंे हो सकती है। कुछ राज्यों में मसलन- राजस्थान और उत्तर प्रदेश में पढ़ाई में हिंदी का उपयोग हो रहा है। लेकिन हाईकोर्ट में यहां भी नहीं हो रहा। क्यों नहीं हो रहा? बस नहीं हो रहा।
दरअसल हम सबके अंदर जो एक श्रेष्ठताभाव छिपा है, अंग्रेजी को सिंहासन में वही बैठाये हुए हैं। हम श्रेष्ठ हैं, क्योंकि हम अंग्रेजी जानते हैं। जो अच्छी अंग्रेजी जानते हैं और बोल सकते हैं वही हाईकोर्ट मंे और सुप्रीम कोर्ट में सीनियर एडवोकेट भी हैं और जज भी हैं। जिन्हें अंग्रेजी बोलने में झिझक है, वो यूपी, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान आदि के बच्चे, जब हिंदी या दूसरी स्थानीय भाषा में पढ़कर यहां आ जाते हैं, उन्हें हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में बोलने में परेशानी है, उन्हें अंग्रेजी आती है, समझते भी हैं लेकिन उन्हें अंग्रेजी बोलने का अभ्यास नहीं है। क्योंकि उनकी परवरिश और पृष्ठभूमि में यह नहीं था। मगर इसका खामियाजा उन्हें हर जगह भुगतना पड़ता है। एक स्थिति में पहुंचकर यह शोषण का सबसे बड़ा हथियार बन जाता है।
कुछ लोगों ने हिंदी के लिए संघर्ष भी किया है, भूख हड़ताल भी की है, सुप्रीम कोर्ट के सामने भी बैठे हैं, यूपीएससी के सामने भी बैठे हैं। सुप्रीम कोर्ट में पिटीशन डाल करके यह कोशिश भी की कि वहां हिंदी बोलने की इजाजत हो, लेकिन यह पिटीशन रद्द हो गई। सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया हिंदी में नहीं हो सकता। क्योंकि सारे देश से अलग अलग भाषाओं के मुकदमें आते हैं। यह सम्भव नहीं है यानी हिंदी संपर्क भाषा नहीं बनायी जा सकती है, आप अंग्रेजी में ही बोलिये। इसमें बहस करिये। हालांकि हिंदी अब बाजार की भाषा है। कारोबार की भाषा है। आपको यह जानकार शायद हैरानी होगी कि साक्षारता अभियान में जो करोड़ों, अरबों रुपये खर्च किये गये उसके पीछे साक्षर होने से ज्यादा मकसद उपभोक्ता बनाना था। हालांकि इसे जिन्होंने अंजाम दिया, वो खुद को क्रांतिकारी ही मानते थे।
इसका बेसिक उद्देश्य यह था कि इस देश की जनता को इतना साक्षर बना दो कि वो पढ़-लिखकर यह समझ सके कि ये कौन सा प्रोडक्ट है। वह कोको कोला और पेप्सी को पहचान सके। खेल यहां था। साक्षारता अभियान के बाद एक रिपोर्ट तैयार की गई, जो स्पष्ट करती है कि जहां जहां साक्षारता अभियान चलाया गया, वहां-वहां विदेशी प्रोडक्ट की बिक्री बढ़ गई। चूंकि बहुसंख्यक उपभोक्ता की भाषा अंग्रेजी नहीं है, इसलिए बाजार की भाषा तो हिंदी होनी ही है। अंग्रेजी के चैनल हिंदुस्तान में कामयाब नहीं हो सकते। आकाशवाणी में अगर एक बार अंग्रेजी में समाचार आते हैं, तो तीन बार हिंदी में। क्योंकि देश की संवाद की भाषा हिंदी है, बाजार की भाषा हिंदी है। लेकिन पत्राचार की भाषा देखिये वो राज्य सरकारों से लेकर केंद्र सरकारों तक बल्कि व्यक्तिगत तौरपर भी अंग्रेजी है। स्थितियां भयावह है। जब तक भाषा को लेकर सत्ता की नीति और नियत पूर्णतया संदेहास्पद है, मनाते रहें हर साल हिंदी दिवस।
(लेखक सुप्रीमकोर्ट के प्रख्यात वकील तथा महिलाओं और बच्चों के अधिकारों के मुखर प्रवक्ता हैं)