तालिबान के हवाले अफगानिस्तान
तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया है. वह भी पहली चेतावनी के सिर्फ 22 दिन में. अफगानिस्तान राष्ट्रपति अशरफ गनी ने देश छोड़ दिया है. हथियारबंद लड़ाकों को राष्ट्रपति भवन में बेफिक्री से टहलते देखे जा सकते हैं. पश्तो जुबान में छात्रों को तालिबान कहा जाता है. नब्बे के दशक की शुरुआत में जब सोवियत संघ अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुला रहा था, उसी दौर में तालिबान का उभार हुआ.
माना जाता है कि पश्तो आंदोलन पहले धार्मिक मदरसों में उभरा और इसके लिए सऊदी अरब ने फंडिंग की. इस आंदोलन में सुन्नी इस्लाम की कट्टर मान्यताओं का प्रचार किया जाता था.
इसी साल 23 जून को संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी थी कि तालिबान अफगानिस्तान के 370 जिलों में से 50 पर कब्जा कर चुका है. अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र की विशेष दूत डेबरा ल्योन्स की यह चेतावनी एक हैरतअंगेज खबर की तरह आई थी, क्योंकि तब चर्चाएं पश्चिमी सेनाओं के स्वदेश लौटने के इर्द-गिर्द केंद्रित थीं और तालिबान की इस बढ़त पर किसी का ध्यान नहीं था.
फिर, पिछले हफ्ते अमेरिका में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई, जिसमें कहा गया कि 30 दिन के भीतर तालिबान राजधानी काबुल के मुहाने पर होगा और 90 दिन के भीतर देश पर कब्जा कर सकता है. इस चेतावनी के एक हफ्ते के भीतर और पहली चेतावनी के सिर्फ 22 दिन बाद तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता कब्जा ली है.
तालिबान के हवाले अफगानिस्तान
रविवार यानी 15 अगस्त को तालिबान ने राजधानी काबुल में प्रवेश किया और देश के राष्ट्रपति अशरफ गनी विदेश भाग गए. उन्होंने कहा कि वह खून-खराबा टालना चाहते हैं. तालिबान के एक प्रवक्ता के अनुसार युद्ध खत्म हो गया है और अफगान लोगों को जल्द पता चलेगा कि नई सरकार कैसी होगी.
रविवार को जब तालिबान के काबुल में घुसने की सूचनाएं फैलने लगीं तो शहरभर में भगदड़ मची हुई थी. अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों के हेलीकॉप्टर अपने कर्मचारियों और नागरिकों को वहां से निकालने के लिए आसमान पर मंडरा रहे थे.
काबुल के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर जाम लगा हुआ था और सैकड़ों लोग देश से निकलने के लिए उड़ानों का इंतजार कर रहे थे. एक सूत्र ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को बताया कि विमानों में सीटों को लेकर लोगों के बीच झगड़े भी हुए.
स्थानीय टेलीविजन 1टीवी के मुताबिक रात के वक्त शहर में कई जगह धमाके सुने गए, लेकिन दिन में राजधानी कमोबेश शांत रही. एक सामाजिक संगठन ‘इमरजेंसी' ने बताया कि 80 घायलों को अस्पताल लाया गया लेकिन भर्ती उन्हीं को किया जा रहा है जिन्हें जानलेवा घाव हैं.
इससे पहले अल जजीरा ने तालिबान कमांडरों के राष्ट्रपति भवन में होने के वीडियो भी प्रसारित किए थे. दर्जनों हथियारबंद लोगों को राष्ट्रपति भवन में टहलते देखा जा सकता था.
देश के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने अफगानिस्तान छोड़ दिया. हालांकि लिखे जाने तक यह पता नहीं चल पाया था कि वह कहां गए हैं और सत्ता का हस्तांतरण कैसे होगा.
एक फेसबुक पोस्ट में गनी ने कहा कि उन्होंने खून-खराबा टालने के लिए देश छोड़ा है ताकि काबुल के लाखों लोगों की जान खतरे में ना पड़े. उन्होंने यह नहीं बताया कि वह कहां हैं. हालांकि सोशल मीडिया पर कई स्थानीय लोगों उन्हें अराजकता में छोड़कर भागने वाला कायर बताया.
ऐसी ही भगदड़ अमेरिकी और अन्य पश्चिमी कर्मचारियों में भी देखी गई. शहर के किलेबंद ‘वजीर अकबर खान' इलाके में स्थित दूतावास से अमेरिकी कर्मचारियों को हेलिकॉप्टरों से हवाई अड्डे पर ले जाया गया.
एक अमेरिकी अधिकारी के मुताबिक देश से लगभग 500 लोगों को निकाला गया है जिनमें अधिकतर अमेरिकी नागरिक हैं. यह संख्या पांच हजार प्रतिदिन हो सकती है, जिसके लिए हजारों अमेरिकी सैनिकों को भेजा गया है.यूरोपीय देशों ने भी अपने नागिरकों को वापस ले जाने का काम शुरू कर दिया है. हालांकि रूस ने कहा है कि उसे अपने दूतावास को खाली करने की कोई वजह नहीं दिखती. तुर्की ने भी कहा है कि उसका दूतावास नियमित रूप से काम करता रहेगा.
तालिबान के एक प्रवक्ता ने कहा है कि उनकी सरकार अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ अच्छे संबंध चाहती है. लेकिन, बहुत से अफगान लोगों को डर है कि तालिबान अपने उसी भयानक रूप में लौटेगा, जिसने 1996 से 2001 के दौरान लोगों को अमानवीय यातनाएं दी थीं.अपने पांच साल के शासन में तालिबान ने अफगानिस्तान में देश पर शरिया कानून लागू कर दिया था. उस दौरान महिलाओं के पढ़ने और काम करने पर रोक लगा दी गई थी. देश में पत्थरबाजी, कोड़े मारना और सार्वजनिक तौर पर मौत के घाट उतारने जैसी सजाएं दी जाती
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव अंटोनियो गुटेरेश ने तालिबान और अन्य पक्षों से संयम बरतने की अपील की है. उन्होंने महिलाओं व लड़कियों के भविष्य को लेकर खासतौर पर चिंता जताई है.
अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी नेतृत्व वाली सेना ने तालिबान को साल 2001 में सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था. लेकिन धीरे-धीरे इस समूह खुद को मज़बूत करता गया और अब एक बार फिर से इसने लगभर पूरे अफ़गानिस्तान पर क़ब्ज़ा कर लिया है.
कौन हैं तालिबानी
क़रीब दो दशक बाद अमेरिका 11 सितंबर, 2021 तक अफ़ग़ानिस्तान से अपने सभी सैनिकों को हटाने की तैयारी कर रहा है. ऐसा फरवरी, 2020 में दोहा में दोनों पक्षों के बीच समझौता के तहत हुआ. अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को हटाने की प्रतिबद्धता जताई और तालिबान अमेरिकी सैनिकों पर हमले बंद करने को तैयार हुआ.
समझौते में तालिबान ने अपने नियंत्रण वाले इलाक़े में अल क़ायदा और दूसरे चरमपंथी संगठनों के प्रवेश पर पाबंदी लगाने की बात भी कही और राष्ट्रीय स्तर की शांति बातचीत में शामिल होने का भरोसा दिया था.लेकिन समझौते के अगले साल से ही तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान के आम नागिरकों और सुरक्षा बल को निशाना बनाना जारी रखा.अब जब अमेरिकी सैनिक अफ़ग़ानिस्तान से विदा होने की तैयारी कर रहे हैं तब तालिबान अफ़गानिस्तान में हावी हो गया है.
कब हुई थी तालिबान की शुरुआत
पश्तो जुबान में छात्रों को तालिबान कहा जाता है. नब्बे के दशक की शुरुआत में जब सोवियत संघ अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुला रहा था, उसी दौर में तालिबान का उभार हुआ.माना जाता है कि पश्तो आंदोलन पहले धार्मिक मदरसों में उभरा और इसके लिए सऊदी अरब ने फंडिंग की. इस आंदोलन में सुन्नी इस्लाम की कट्टर मान्यताओं का प्रचार किया जाता था.
जल्दी ही तालिबानी अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बीच फैले पश्तून इलाक़े में शांति और सुरक्षा की स्थापना के साथ-साथ शरिया क़ानून के कट्टरपंथी संस्करण को लागू करने का वादा करने लगे थे.
इसी दौरान दक्षिण पश्चिम अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का प्रभाव तेजी से बढ़ा. सितंबर, 1995 में उहोंने ईरान की सीमा से लगे हेरात प्रांत पर कब्ज़ा किया. इसके ठीक एक साल बाद तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी क़ाबुल पर कब्ज़ा जमाया.
अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का नियंत्रण
उन्होंने उस वक्त अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति रहे बुरहानुद्दीन रब्बानी को सत्ता से हटाया था. रब्बानी सोवियत सैनिकों के अतिक्रमण का विरोध करने वाले अफ़ग़ान मुजाहिदीन के संस्थापक सदस्यों में थे.साल 1998 आते-आते, क़रीब 90 प्रतिशत अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का नियंत्रण हो गया था.सोवियत सैनिकों के जाने के बाद अफ़ग़ानिस्तान के आम लोग मुजाहिदीन की ज्यादतियों और आपसी संघर्ष से ऊब गए थे इसलिए पहले पहल तालिबान का स्वागत किया गया.
भ्रष्टाचार पर अंकुश, अराजकता की स्थिति में सुधार, सड़कों का निर्माण और नियंत्रण वाले इलाक़े में कारोबारी ढांचा और सुविधाएं मुहैया कराना- इन कामों के चलते शुरुआत में तालिबानी लोकप्रिय भी हुए.
लेकिन इसी दौरान तालिबान ने सज़ा देने के इस्लामिक तौर तरीकों को लागू किया जिसमें हत्या और व्याभिचार के दोषियों को सार्वजनिक तौर पर फांसी देना और चोरी के मामले में दोषियों के अंग भंग करने जैसी सजाएं शामिल थीं.पुरुषों के लिए दाढ़ी और महिलाओं के लिए पूरे शरीर को ढकने वाली बुर्क़े का इस्तेमाल ज़रूरी कर दिया गया. तालिबान ने टेलीविजन, संगीत और सिनेमा पर पाबंदी लगा दी और 10 साल और उससे अधिक उम्र की लड़कियों के स्कूल जाने पर रोक लगा दी.
तालिबान सरकार को मान्यता देने वाले देश
तालिबान पर मानवाधिकार के उल्लंघन और सांस्कृतिक दुर्व्यवहार से जुड़े कई आरोप लगने शुरू हो गए थे.
इसका एक बदनामी भरा उदाहरण साल 2001 में तब देखने को मिला जब तालिबान ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विरोध के बाद भी मध्य अफ़ग़ानिस्तान के बामियान में बुद्ध की प्रतिमा को नष्ट कर दिया.तालिबान को बनाने और मज़बूत करने के आरोपों से पाकिस्तान लगातार इनकार करता रहा है लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं है कि शुरुआत में तालिबानी आंदोलन से जुड़ने वाले लोग पाकिस्तान के मदरसों से निकले थे.
अफ़ग़ानिस्तान पर जब तालिबान का नियंत्रण था तब पाकिस्तान दुनिया के उन तीन देशों में शामिल था जिसने तालिबान सरकार को मान्यता दी थी. पाकिस्तान के अलावा सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने भी तालिबान सरकार को स्वीकार किया था.
अल क़ायदा का ठिकाना
11 सितंबर, 2001 को न्यूयार्क वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद दुनिया भर का ध्यान तालिबान पर गया. हमले के मुख्य संदिग्ध ओसामा बिन लादेन और अल क़ायदा के लड़ाकों को शरण देने का आरोप तालिबान पर लगा.
सात अक्टूबर, 2001 को अमेरिका के नेतृत्व में सैन्य गठबंधन ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला कर दिया और दिसंबर के पहले सप्ताह में तालिबान का शासन ख़त्म हो गया.दुनिया के सबसे बड़े तलाशी अभियान के बाद भी ओसामा बिन लादेन और तब तालिबान प्रमुख रहे मुल्ला मोहम्मद उमर और उनके दूसरे साथी अफ़ग़ानिस्तान से निकलने में कामयाब रहे.
तालिबान गुट के कई लोगों ने पाकिस्तान के क्वेटा शहर में पनाह ली और वे वहां से लोगों को निर्देशित करने लगे थे. हालांकि पाकिस्तान सरकार क्वेटा में तालिबान की मौजूदगी से हमेशा इनकार करती आई है.
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असुरक्षा और हिंसा का माहौल
भारी संख्या में विदेशी सैनिकों की मौजूदगी के बाद भी तालिबान ने धीरे-धीरे खुद को मज़बूत किया और अफ़ग़ानिस्तान में अपने प्रभाव को बढ़ाया. इसका नतीजा है कि देश में असुरक्षा और हिंसा का वैसा माहौल फिर से दिखने लगा है जो 2001 के बाद कभी नहीं देखा गया था.सितंबर, 2012 में तालिबान लड़ाकों ने काबुल में कई हमले किए और नैटो के कैंप पर भी धावा बोला. साल 2013 में शांति की उम्मीद तब जगी जब तालिबान ने क़तर में दफ़्तर खोलने का एलान किया. हालांकि तब तालिबान और अमेरिकी सेना का एकदूसरे पर भरोसा कमज़ोर था जिसके चलते हिंसा नहीं थमी.अगस्त, 2015 में तालिबान ने स्वीकार किया कि संगठन ने मुल्ला उमर की मौत को दो साल से ज़्यादा समय तक ज़ाहिर नहीं होने दिया. मुल्ला उमर की मौत कथित स्वास्थ्य समस्याओं के चलते पाकिस्तान के एक अस्पताल में हुई थी.इसी महीने समूह ने मुल्ला मंसूर को अपना नया नेता चुने जाने की घोषणा की.
अमेरिका और तालिबान के बीच समझौता
इसी दौरान तालिबान ने साल 2001 की हार के बाद पहली बार किसी प्रांत की राजधानी पर अपना नियंत्रण हासिल कर लिया था, रणनीतिक तौर पर बेहद अहम शहर कुंडूज़ पर उन्होंने नियंत्रण स्थापित किया. मुल्ला मंसूर की हत्या अमेरिकी ड्रोन हमले में मई, 2016 में हुई और उसके बाद संगठन की कमान उनके डिप्टी रहे मौलवी हिब्तुल्लाह अख़ुंज़ादा को सौंपी गई, अभी इन्हें के हाथों में तालिबान का नेतृत्व है.
फरवरी, 2020 में अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौता हुआ. कई दौर की बातचीत के बाद ये समझौता हुआ था.इसके बाद तालिबान ने शहरों और सैन्य ठिकानों पर हमले के बाद कुछ ख़ास तरह के लोगों को निशाना बनाने की शुरुआत की और ऐसे हमलों से उसने अफ़ग़ानिस्तान की जनता को आतंकित कर दिया.
अफ़ग़ानिस्तान सरकार को तालिबान से ख़तरा
इन हमलों में तालिबान ने पत्रकारों, न्यायाधीशों, शांति कार्यकर्ता, और रसूख के पदों पर बैठी महिलाओं को निशाना बनाया गया, ज़ाहिर है तालिबान ने केवल अपनी रणनीति बदली थी, कट्टरपंथी विचारधारा नहीं.
अफ़ग़ानिस्तान के अधिकारियों ने गंभीर तौर चिंता जताई थी कि अंतरराष्ट्रीय मदद के बिना अफ़ग़ानिस्तान सरकार के सामने अस्तित्व बचाने का संकट होगा लेकिन अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडन ने अप्रैल, 2021 में एलान कर दिया कि 11 सितंबर तक सभी अमेरिकी सैनिक वापस लौटेंगे.
दो दशक तक चले एक युद्ध में अमेरिकी महाशक्ति को छकाने के बाद तालिबान ने बड़े क्षेत्र पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया. इससे अमेरिकी सेना के बाहर निकलने के बाद क़ाबुल में सरकार के अस्थिर होने का ख़तरा है.माना जा रहा है कि साल 2001 के बाद पहली बार तालिबान इतना मज़बूत दिख रहा है. नेटो के आकलन के मुताबिक अभी समूह के पूर्णकालिक लड़ाकों की संख्या 85 हज़ार के आस-पास है.